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________________ Bourenwonerangan senderende onderdeen ११७० ब्रह्मविलासमे . है उत्तम ऐलक श्रावक पास । एक लंगोटी परिग्रह जास॥ मठ मंडपमें करहि निवास । एकादशम प्रतिज्ञा भास ॥९॥ दूजो श्रावक क्षुल्लक नाम । कुछ अधिको परिग्रह जिहि ठाम।। इपीछी और कमंडल धरै । मध्यम पात्र यही गुणवरै॥१०॥ अरु दश प्रतिमा धारी जेह । लघु पात्रनमें वरने तेह ॥ इह विधि यह पंचम गुण थान। मध्यम पात्र भेद परवान ॥१॥ अब लघु पात्र कहूं समुझाय । उत्तम मध्यम जघन कहाय ॥ उत्तम क्षायिक समकिंतवंत । जिनके भावनको नहि अंत॥१२॥ है मध्यम पात्र'सु उपसम धार। जिनकी महिमा अगम अपार ॥ वेदक समकित जाके होय । लघुपात्रनमें कहिये सोय ॥१३॥ तीन कुपात्र मिथ्याती जीव । द्रव्यलिंग जो धरहिं सदीव ॥ है ज्ञान विना करनी बहु करै । भ्रमिभ्रमि भवसागरमें परै॥१४॥ मुनिकी सम मुद्रा निरधार । सहै परीसह बहु परकार ॥ जीव स्वरूप न जाने भेव । द्रव्य लिंगी मुनि उत्तम एव॥१५ ६ मध्यम पात्र सु श्रावक भेष । दर्वित. किरियां करै विशेष ।। अन्तर शून्य न आतम ज्ञान । मानत है निजको गुणवान ॥१६ जघन्य कुपात्र कहूं विख्यात । जाके उर वरतै मिथ्यात ॥ इसमकितकीसी ऊपर रीति । अंतर सत्य नही परतीति ॥१७॥ ६ कहूं अपात्र दुई विधि भ्रष्ट :दर्वित भावित क्रिया अनिष्ट ॥ परिग्रहवंत कहावैः साधु । मिथ्यामत भाखै अपराध ॥१८॥ श्रावक आप कहै जगमाहिं । श्रावकके गुण एकह नाहि ॥ भक्ष्याभक्ष्य न जाने भेद । मध्य अपात्र करै बहु खेद ॥१९॥ जघनं अपांत्र यहै विरतंत । कहैं आपको समकितवंत ॥ निहचै अरु नाही व्यवहार । दर्वितभावित दुहं विधि छारा॥२० &ampcowancROPROPORARomeonomnp EROUGUAGOooooootecodvaavo cadoc७Gadbeesrence RESPopupraswanapraswabanawrenawanSUnococonusanwrancomcomsapana
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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