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________________ १६२ ब्रह्मविलास में विधना बनाये । काननमें तृन खांहिं दूर जल पीन जांहिं, बसै बनमाहिं ताहि मारनको धाये हैं | जल माहिं मीन रहे काइसों न कछु कहै, ताको जाय पापी जीव नाहक सताये हैं । सज्जन सन्तोष धेरै काइसों न वैर करै, ताको देख दुष्ट जीव क्रोध उपजाये हैं ॥ १९ ॥ अहिक्षितिपार्श्वनाथ की स्तुति कवित. आनंदको कंद किधों पूनमको चंद किधों, देखिये दिनंद ऐसो नंद अश्वसेनको । करमको हरै फंद भ्रमको करै निकंद, चूरै दुख द्वंद सुख पूरै महा चैनको ॥ सेवत सुरिंद गुनगावत नरिंद भैया, ध्यावत मुनिंद हू पावैं सुख ऐनको। ऐसो जिन चंद करे छिनमें सुछंद सुतौ, ऐक्षितको इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैनको ॥ २० ॥ कोऊं कहैं सूरसोमदेव है प्रत्यक्ष दोऊ, कोउ कहै रामचंद्र राखे आवागौनसों । कोऊ कहै ब्रह्मा बडो सृष्टिको करैया यहै, कोऊ कहै महादेव उपज्यो न जोनसों ॥ कोऊ कहै कृष्ण सव जीव प्रतिपाल करै, कोउ लागि रहे हैं भवानीजीके भौनसों । वही उपख्यान साचो देखिये जहाँन वीचि, वेश्याघर पूत भयो | बाप कहै कौनसों ॥ २१ ॥ • वीतराग नामसेती काम सब होंहि नीके, वीतराग नामसेती धामधन भरिये । वीतराग नामसेती विघन विलाय जाँय, वीत ( १ ) यह कवित्त आगे सुपंथ कुपंथ पचीसी में भी आया है. इसका कारण ऐसा मालूम होता है कि इस सुबुद्धि चौवीसीके आदिमें भूतभविष्यत दो चौवीसीके नमस्कारके दो कवित्त हैं. इनके वीचमें वर्तमान चौवीसीको नमस्कार करनेका कवित्त भी मैयाजीने अवश्य बनाया होगा परन्तु लेखकों की भूलसे कदाचित छूट जानेसे किसी एक महात्माने यह २१ वाँ कवित्त रखकर २४ की संख्या पूरी की होगी. अन्यथा दो जगहँ एकही कवित्तका होना असंभव है । Pabvah
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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