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________________ ब्रह्मविलास में चौपाई. एक अरब अरु त्रेसठ कोड़ि | लख चौरासी तापरि जोड़ि ॥ . एते योजन महा प्रमान । अष्टमद्वीप नंदीश्वर जान ॥ ३॥ तामहि चहुं दिशि शिखरि उतंग । तिनको मान कहुं सरवंग ॥ दिशि पूरव गिरि तेरह सही । ताकी उपमा जाय न कही ॥४॥ मध्य एक अंजनके रंग । शिखरि उतंग वन्यो सरवंग ॥ सहस चौरासी योजन मान । धूपरवत देख्यो भगवान ॥ ५ ॥ ताके चहुं दिशि परवत चार । उज्वल वरन महा सुखकार ॥ चौसठि सहस उतंग जु होय । दधिमुख नाम कहावे सोय ६ इक इक दधि मुखपरवत तास । द्वै द्वै रतिकर अचल निवास ॥ इक इक अरुण वरन गिरि मान । सहस चवालिस ऊर्द्ध प्रमान ॥७ इहविधि तेरह गिरिवर गने । ता परि चैत्य अकृत्रिम वने ॥ इक इक गिरिपर इक प्रासाद । ताकी रचना बनी अनाद ॥ ८ ॥ इक जिनमंदिरको विस्तार । सुनहु भविक परमागम सार ॥ गिरिको शिखर वरत तिहिरूप । रत्नमयी प्रासाद अनूप ॥ ९ ॥ इक चैत्यालय बिंव प्रमान । इकसो आठ अनूपम जान ॥ रत्नमणी सुंदर आकार । धनुष पंचसो ऊर्ध्व उदार ॥१०॥ इम तेरह पूरव दिशि छप्पनसो सोरह बिंब अनंत ज्ञान जो आतमराम । सो प्रगढ़हि इह मुद्रा धाम ॥ लोक अलीक विलोकन हार । ता परदेशनि यह आकार ॥१२ अनंत काललों यहीं स्वरूप । सिद्धालय राजै चिद्रूप ॥ 1 (१) मंदिर.. - १५२ " कहे । ताके भेद जिनागम लहे ॥ सबै । ताकी भावन भाऊं अवै ॥ ११॥ geet
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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