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________________ Danpheavenanc0meopapidomNOOR शतअष्टोत्तरी. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm चेतु चेतु चित चेतु, विचक्षण वेर यह। हेतु हेतु तुव हेतु, कहित हो रूप गह ।। मानि मानि पुनि मानि,जनम यह वहुर न पावै| ज्ञान ज्ञान गुण जान, मूढ क्यों जन्म गमावै ॥ • बहु पुण्य अरे नरभी मिल्यो, सो तू खोवत वावरे । अज हूं संभारि कछु गयो नहि 'भैया' कहत यह दावरे ॥५॥ कवित्त. जैसो वीतराग देव कह्यो है स्वरूपसिद्ध, तैसो ही स्वरूप मेरो । यामें फेर नाहीं है । अष्टकर्म भावकी उपाधि मोमें कहूं नाहिं - अष्ट गुण मेरे सो तो सदा मोहि पांहीं है ॥ ज्ञायक स्वभाव, 1. मेरो तिहूं काल मेरे पास, गुण जे अनन्त तेऊ सदा मोहिमाही है। ऐसो है स्वरूप मेरो तिहूं काल सुद्धरूप, ज्ञानदृष्टि देखतें न है है दूजी परछांही है ॥६॥ विकट भौसिंधु ताहि तरिवेको तारू कौन, ताकी तुम तीर । आये देखो दृष्टि धरिकै । अबके संभारेसे पार भले पहुँचत हौं, , अवके संभारे विन वूडत हो तरिक। बहुस्यो फिर मिलवो नाहि ऐसो है संयोग, देव गुरु ग्रंथ करि आये हिय धरि के । ताहि तू ई विचारि निज आतमनिहारि 'भैया' धारि परमातमाहिं शुद्ध ध्यान करिक ॥७॥ जोपै तोहि तरिवेकी इच्छा कछु भई भैया, तो तौ वीतरागजूके वच उर धारिये। भौसमुद्रजलमें अनादिही ते वूडत हो, जिननाम नौका मिली चित्ततें न टारिये ॥ खेवट विचारि शुद्ध थिरतासी ध्यान काज, सुखके समूहको सुदृष्टिसों निहारिये । चलिये जो इह पंथ मिलिये श्यौ मारगमें, जन्मजरामरनके हैं भयको निवारिये ॥८॥ VermenchARRIERRERepenepanpranpeoplespons BappresNDINTEmpensDanapaswanatrenacondamomposerenanceremonstrator RupeecooprenopropranoproorancoretoproGOASDemoD90000000000amraparna
SR No.010848
Book TitleBramhavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages312
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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