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________________ [१६६] धर्मामृत करने का दावा रखते हैं इस बात को लक्ष्यगत कर उक्त व्युत्पत्ति की कल्पना ऊठी है । भजन १३ वां ७८. संघयण - शरीर का बांधा । सं० संहनन - प्रा० संघणण - संघयण ( जैनपारिभाषिक ) " गात्रं वपुः संहननं शरीरम्" इत्यादि अमरकोश (द्वितीयकांड मनुष्य वर्ग श्लो० ७० ) के अनुसार संस्कृत साहित्य में 'संहनन' शब्द शरीर का वाचक है परंतु जैनसाहित्य में ' संहनन' शब्द प्रधानता से शरीर का वाचक न होकर शरीर के बंधारण का वाचक हो गया है । 'संघणण' में दो 'ण' साथ आने से एक 'ण' '' हट गया है इसका कारण वाग्व्यापार है । - ७९. संठाण - शरीर का आकार सं० संस्थान - प्रा० संठाण । संस्कृत साहित्य में भी 'संस्थान' शब्द शरीर की रचना अर्थ में प्रचलित है: "संनिवेशे च संस्थानम्" - ( अमरकोश नानार्थ वर्ग श्लो० १२३ ) " संस्थानं संनिवेशः स्यात् " – ( है मअभिधान चिन्तामणि कांड ६ लो० १५२ ) । भजन १४ वां ८०. थारे - तेरे थारे ( मारवाडी ) तारे (गुजराती ) तेरे ( हिंदी ) ये सब समान शब्द है और पर्याय रूप है । मूल शब्द 'त्वत्' है ।
SR No.010847
Book TitleBhajansangraha Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherGoleccha Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages259
LanguageHindi Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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