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________________ अथवा गुरुसे प्राप्त सम्पत्तिको बढाये । यह बात हम आचार्यश्री के जीवनमे पाते हैं । वीजरूपमे मिले हुए संस्कारोंको पल्लवित करनेमे आपने कुछ उठा नहीं रखा। बचपन मे ही आपने अध्ययन, अध्यापन, अनुशासन, परोपकार और सचाईकी पुष्ट परम्पर।एं पूर्ण विकसित कर लीं। मैं इनके कुछ उदाहरण आचार्य श्री के शब्दोंमे ही उपस्थित करूंगा 11 "विद्याध्ययनमे मेरी रुचि सदासे रही । मैं जब ६-७ वर्षका था, तब स्थानीय नन्दलालजी ब्राह्मणकी स्कूलमे पढने जाया करता । फिर कुछ दिनों बाद हीरालालजी वज जैन के वहा पढ़ता था । तच मैने हिन्दी, हिसाव आदि पढ़े | मैंने इगलिशकी 'ए-वी-सी-डी' भी नहीं पढ़ी। मुझे पाठ कण्ठस्थ करनेका वडी शौक था । उस ( पाठ) का स्मरण भी बहुधा करता रहता । मुझे याद है कि मैं खेल-कूदमे भी बहुत कम जाया करता । जब कभी जाता तो खेलने के साथ-साथ पाठका भी स्मरण करता रहता । पच्चीस वोल, चर्चा, हितशिक्षा के पच्चीस वोल, जाणपणाके पच्चीस वोल, नमस्कार मंत्र, सामायिक, पंचपद - वन्दना आदि मेरे छुटपनसे ही कण्ठस्थ थे । जब मैं स्कूलमे पढ़ता, तब और लड़कोंको पढ़ाया भी करता । मेरे जिम्मे कई लड़के लगे हुए थे। उनकी देख-रेख भी मैं करता । स्कूलमे जितने लड़के पढ़ते, उनके जो भी कोई अपराध हों, लिखे जाते और शामको मास्टरजीको दिखलाये जाते । यह काम भी मेरे जिम्मे कई दफा रहता था। स्कूलमे विक्रयार्थ जितनी पुस्तकें
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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