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________________ १५४ आचार्य श्री तुलसी 'न च वयः' इसपर ध्यान नहीं दिया, अन्यथा वे अपने पुत्रको समझानेका कष्ट न करते । पुत्रने पितासे कहा - आश्चर्यभरे स्वरमे कहा-यह क्यों ? आपके मुहसे ये शब्द निकले । में नहीं सुनना चाहता ऐसे शब्द ।। अपन कितने वैराग्यसे घर बार छोड़ कर दीक्षित हुए है। लाखोंकी सम्पत्ति, पूरा परिवार, बड़े बड़े मकान क्या इसीलिए थोड़े ही छोड़े है कि हम घर वापिस चलेचले। मैं अधिक क्या कह ? आप स्वयं समझदार है, आखिर आपकी ऐसी भावना हुई क्यों ? यह तो बतायें। पिताने वात को टालते हुए कहा-नहीं, यो ही मैं तेरी परीक्षा करता हू-तेरी भावना कैसी है, तू संयममे कैसा रमा है । ___ थोडे दिन बीते, फिर वही घोडा और वही मैदान । पिताने पुत्रको ललचाने की बातें शुरू कर दी। मीठे-मीठे शब्दोमे कहादेख, अपन वैराग्यसे साधु वने, घर छोड़ा, यहा साधुपन नहीं पल रहा है। फिर व्यर्थ ही क्यों कष्ट सहें ? आत्म-कल्याण गृहस्थीमे जाकर भी कर लेंगे। पुत्रने फिर पिताको समझायाआप अपनी दुर्बलताको साधु-संस्थाके शिर न मढ़। आपको यह काम करना उचित नहीं। थोडी सो कठिनाइयोसे घबड़ाकर शिथिल होना आपको शोभा नहीं देता। मैं आपकी यह बात कभी नहीं मान सकता, चाहे जो कुछ भी हो जाये। पिताका प्रयत्न फिर असफल रहा। उन्हें दीक्षा स्वीकार किये दो-ढाई महीने हुए थे। राजलदेसर की बात है। आचार्यश्री रात्रि-प्रतिक्रमण कर विराज रहे थे।
SR No.010846
Book TitleAcharya Shree Tulsi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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