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________________ विजयसूरिप्रवन्धमे लिखते है कि "श्री वीरनिवणिसे ८८४वें वर्षमें ( अर्थात् वि० स० ४१४ में )बाद एप वौद्ध व्यन्तर देवीको मल्लवादीने जीता।" यह लिखते समय प्रभावकचरित्रकार श्रीप्रमाचन्द्ररिक समक्ष अवश्य ही कोई ऐसी परम्परा रही होगी, जिसके आधारपर उन्होने मल्लवादीके द्वारा बौद्ध-विजयको समय वि० स० ४१४ लिखा है। श्रीमल्लवादी द्वारा रचित अन्योमसे एकमात्र 'नयचक्र' अन्य ही इस समय उपलब्ध है । यद्यपि वह भी मूल रूपमे तो नष्ट हो गया है, ऐसा इस समय माना जाता है, फिर भी उसपर सिंहमूरिगणिवादिक्षमाश्रमण नामके (विक्रमको छठी-सातवी शताब्दीके ) आचार्य द्वारा रचित 'न्यायागमानुसारिणी' नामको १८,००० श्लोक-परिमाणकी जो टीका मिलती है, उसमे आये हुए मूलके प्रतीकोको एकत्रित करके तथा दूसरी अनेकविध सामग्रीके आधारपर मूलप्रथको बहुत कुछ तैयार किया जा सकता है। उसमे जिन-जिन अन्य अन्यकार तथा उनके वाक्योका उल्लेख किया गया है, उनकी जाँच करनेपर किसीका भी उपयुक्त ,वि० स० ४१४ के साथ विरोध नहीं आता। संशोधक' भाग १, परिशिष्ट, पृ० १० । इसी बातको विद्यानन्दीकृत 'अष्टसहली' के अपने अष्टसहलीविवरणमें उपाध्याय यशोविजयजी इस प्रकार कहते है . इहाथै कोटिशो भङ्गानिदिदा मल्लवादिना । मूलसम्मतिटोकोयामिदं दिमात्रदर्शनम् ॥ (पृ० २१०) १. इस प्रकारका विशिष्ट प्रयत्न मुनि श्री जम्बूविजयजीने किया है। २. विरोधकी जो कल्पना होती थी, उसका कारण मल्लवादी द्वारा भर्तृहरिके 'वाक्यपदीय' ग्रन्थमेंसे उद्धृत अनेक कारिकाएँ थीं। भर्तृहरिका समय, अब तक, चीनी यात्री इसिपके द्वारा ई० ६९१ में लिखे भारत-यात्रा विषयक अन्यमें 'शून्यतावादी तया सात-सात बार बौद्ध भिक्षु बनकर पुनः गृहस्य बननेवाले महान् वौद्ध पण्डित भर्तृहरिको मृत्यको आज ४० वर्ष हुए है', ऐसे उल्लेखपरसे मान लिया गया था। परन्तु मुनि श्री जम्बूविजयजीने 'जनाचार्य श्री मल्लवादी और भर्तृहरिका समय' लेखमें (देखो 'बुद्धिप्रका' नवम्बर १९५१, पृ.० ३३२ ) जो लिखा है, उसके आधार५९ या तो इत्सिगका वचन निराधार है अथवा वह भर्तृहरि दूसरा ही होना चाहिए, क्योकि वसुबन्धुके शिष्य दिनागने (विक्रमको ४थी शताब्दीके अासपास ) भर्तृहरिक वाक्यपदीय' मेंसे दो कारिकाएं उद्धृत की है, इनिश्चित होनेसे तथा भर्तृहरिका गुरु वसुरात दिनागके साक्षात् गुरु वसुबन्धु
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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