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________________ १०६ व अनुभवगम्य पाहकर उन्होने वर्णन करना छोड़ दिया। यदि पन प्रक्रियाको ध्यानमें रखा जाय, तो यह स्प८८ हो जाता है कि "तदेजति तनेजति" ( ईशा० ५), "अणोरणीयान् महतो महीयान्" ( 46० १ २. २०, श्वेता० ३ २०), "संयुक्तमेतत् क्षरमक्षर च व्यक्ताव्यक्त भरते वि१मीग । अनीगश्चात्मा" ( श्वेता. १८), "सदसद्वरेण्यम्" ( मुण्डक० २ २. १) इत्यादि उपनिपाक्योमे दो विरोधी धोका स्वीकार किसी एक ही धीमे अपेक्षाभेदसे किया गया है। उन वाक्यामे विधि और निपंच दोनो पक्षोका विचिमुखसे समन्वय हुआ है। ऋग्वेदके ऋपिने दोनो विरोधी पक्षोको अस्वीकृतकर निमुखसे तीसरे अनुभयपक्षको उपस्थित किया है, जबकि उपनिषदोके ऋषियोने दोनो विरोधी धमाक स्वीकार के द्वारा उभयपक्षका समन्वयक र उक्त वाक्योमे विधिमुखसे चौथे उभयभगका आविष्कार किया। किन्तु परमतत्वको इन धर्मोका आधार मानने पर जब उन्हे विरोधको । गन्ध आने लगी, तव फिर अन्तमे उन्होने दो मार्ग अपनाये। उनमें दूसरे लोगो द्वारा स्वीकृत धोका निषेध करना प्रथम मार्ग है। यानी ऋग्वेदके ऋषिको तरह अनुभयपक्षका अवलम्बनकर निपेवमुखसे उत्तर देना कि वह न सत् है न असत् "न सन्न चासत्" ( श्वेता० ४ १८ )। जव इसी निषेधको "स एष नेति नेति" ( वृहदा० ४ ५ १५) की अन्तिम मर्यादातक पहुंचाया गया, तव इसी से फलित हुआ कि वह अवक्तव्य है। यही दूसरा मार्ग है। "तो पाचो निवर्तन्ते" (तत्तिरीय० २४), "यहचानयुदितम्” ( केन० १४), "नव वाचा न मनसा प्राप्त शक्य (क०० २ ६ १२), "अदृष्टमव्यवहार्यमबाह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसार प्रपञ्चोपशम शान्त शिवमद्वैत चतुर्य मन्यन्ते स आत्मा स विशेय" ( माण्डूक्य०७) इत्यादि उपनिपहायोमे इसी सक्तव्य भगकी चर्चा है । इतनी चर्चास स्पष्ट है कि जब दो विरोवी धर्म उपस्थित होते है, तब उसके उत्तरमे तीसरा पक्ष निम्न तीन तरहसे हो सकता है १ उभय विरोधी पक्षोको स्वीकार करनेवाला ( उभय ) । २ उभय पक्षका निषेध करनेवाला ( अनुमय )। ३ अवक्तव्य। इनमासे तीसरा प्रकार, जैसा कि पहले बताया गया, दूसरा विकसित । रूप ही है। सतएव अनुभय और वक्तव्यको एक ही भग समझना चाहिए। अनुभवका तात्पर्य यह है कि वस्तु उभय रूपसे वाच्य नही अर्थात् वह सत्
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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