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________________ परिशिष्ट* (१) भंगोंका इतिहास अनेकान्तवादको चर्चाक प्रसगमे यह स्पष्ट हो गया है कि भ० महावीरने परस्पर विरोधी धर्मोको एक ही धर्मीमे स्वीकार किया और इस प्रकार उनकी समन्वयको भावनामसे अनेकान्तवादका जन्म हुआ है । किसी भी विषयमे प्रथम अस्ति-विधिपक्ष होता है, तब कोई दूसरा उस पक्षका नास्ति-निषेव पक्ष लेकर खण्डन करता है। अतएव समन्वेताके सामने जबतक दोनो विरोधी पक्षोकी उपस्थिति न हो, तबतक समन्वयका प्रश्न उठता ही नही। इस प्रकार अनेकान्तवाद या स्यावादके मूलमें सर्वप्रथम अस्ति और नास्ति पक्षका होना आवश्यक है। अतएव स्याद्वदिके भगोमे सर्वप्रथम १.इन दोनो भगोको स्थान मिलना स्वाभाविक ही है। यदि हम भगोंके साहित्यिक इतिहासकी ओर ध्यान दे, तो हमे सर्वप्रथम ऋग्वेदके नासदीयसूक्तमे भगोका कुछ आभास मिलता है। उक्त सूक्तके ऋषिके सामने दो मत थे। कोई जगत्के आदिकारणको सत् कहते थे, तो दूसरे असत् । ऋषिके सामने जव समन्वयकी इस प्रकारको सामग्री उपस्थित हुई, तब उन्होने कहा कि वह सत् भी नही, असत् भी नही । उनका यह निषेवमुख उत्तर भी एक पक्ष परिणत हो गया । इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय ये नीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने पुराने सिद्ध होते है। उपनिषदोमे आत्मा या ब्रह्मको ही परम तत्व मानकर आन्तर वाह्य सभी वस्तुओको उसीका प्रपच माननेको प्रवृत्ति हुई, तब अनेक विरोधोकी भूमि ब्रह्म या आत्माका बनना स्वाभाविक था। इसका परिणाम यह हुआ कि आत्मा, ब्रह्म या ब्रह्मस्वर५ विश्वको ऋपियोने अनेक विरोधी धोस अलकृत किया । पर जब उन विरोधोके तार्किक समन्वयसे भी उन्हें सम्पूर्ण सन्तोप-लाभ न हुआ, तब उसे वचनागोचर अवतव्य अव्यपदेश्य बताकर * प० श्री दलसुखभाई मालवणिया द्वारा सम्पादित और सिंघी ग्रन्थमालामें प्रकाशित न्यायावतारवर्तिकवृत्तिको प्रस्तावना ( पृ० ३६ से ' ४२ ) मेसे साभार उद्धृता
SR No.010844
Book TitleSanmati Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Bechardas Doshi, Shantilal M Jain
PublisherGyanodaya Trust
Publication Year1963
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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