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________________ ४२.] . . . -प्रवचनसारः ३३५ अथेदमेव सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतत्वमेकाग्र्यलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्टिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥४२॥ ___ . दर्शनज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु । एकाग्रगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥ ४२ ॥ ज्ञेयज्ञातृतत्त्वं तथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि योगपद्येन भाव्यभावकभावविजृम्भितातिनिर्भरतरेतरसंवलनवलादङ्गाङ्गिभावेन अथ यदेव संयततपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति-दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु दर्शनज्ञानचारित्रेषु त्रिषु युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता एयग्गगदो त्ति मदो स ऐकाग्र्यगत इति मतः संमतः सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि-भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपञ्चद्रव्येभ्योऽपि भिन्नं सहजशुद्धनित्यानन्दैकखभावं मम संवन्धि यदात्मद्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम् । तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्नेव खरूपे निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं आगे पूर्ण सिद्ध हुई, जो यह आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभावकी एकता और आत्मज्ञानकी एकता यही एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग है, इसीका दूसरा नाम मुनिपदवी है, यह कहते हैं-[यः] जो पुरुष [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, [त्रिषु] इन तीन भावोंमें [युगपत् ] एक ही समय [समुत्थितः] अच्छी तरह उद्यमी हुआ प्रवर्तता है, वह [एकाग्रगतः] एकाग्रताको प्राप्त है, [इति मतः] ऐसा कहा है, [तु] और [तस्य ] उसी पुरुपके [श्रामण्यं] यतिपद [परिपूर्ण] पूर्ण हुआ जानना। भावार्थ-ज्ञेय, ज्ञायक, तत्त्वकी यथावत्प्रतीतिका होना सम्यग्दर्शन है, ज्ञेय, ज्ञायकका यथार्थ जान लेना, सम्यग्ज्ञान है, और अन्य क्रियासे निवृत्त होके दर्शनस्वरूप आत्मामें प्रवृत्ति 'चारित्र' कहा जाता है। इन तीनों ही भावोंका आत्मा भावक है, ये भाव्य हैं, इन भाव्य भावोंके बढ़नेसे अति परिपूर्ण परस्पर मिलाप है, आत्मा अंगी है, ये तीनों भाव अंग हैं, अंग अंगीकी एकता है। इस प्रकार एक भावको परिणत हुए आत्माके स्वरूपमें लीन होनेरूप जो संयमभाव है, वह यद्यपि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रके भेदसे अनेक है, तथापि एकस्वरूप ही है । जैसे आम तथा इमली आदिका बनाया हुआ ‘पना' मिष्ट खट्टा चरपरा सुगंध द्रव्य आदिके भेदसे अनेक है, तथापि सवको , मिलकर एक पर्याय धारण करता है, इससे एक है, उसी प्रकार वह संयम यद्यपि रत्न
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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