SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ - रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला [ अ० ३, गा० ४१आत्मपरिणामः । ततः संयतस्य साम्यं लक्षणम् । तत्र शत्रु बन्धुवर्गयोः सुखदुःखयोः प्रशंसानिन्दयोः लोष्टकाञ्चनयोर्जीवितमरणयोश्च समम् । अयं मम परोऽयं स्वः, अयमाहादोऽयं परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वैतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्वभावमात्मानमनुभवतः शत्रु बन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निर्विशेमेव ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्व यौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम् ॥ ४१ ॥ लक्षणेन विकल्पत्रययौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च युक्तो योऽसौ संयतस्तस्य किं लक्ष - णमित्युपदिशति । इत्युपदिशति कोऽर्थः इति पृष्ठे प्रत्युत्तरं ददाति । एवं प्रश्नोत्तरपात - निकाप्रस्तावे क्वापि क्वापि यथासंभवमितिशब्दस्यार्थे ज्ञातव्यः -- स श्रमणः संयतस्तपोधनो भवति । यः किं विशिष्टः । शत्रु बन्धुसुखदुःख निन्दाप्रशंसालोष्ट काञ्चन जीवितमरणेषु समः समचित्तः इति। ततः एतदायाति । शत्रुबन्धुसुखदुः खनिन्दाप्रशंसालोष्टकाञ्चनजीवित्तमरणसमताभावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यकू श्रद्धानज्ञानानुष्ठान रूपनिर्विकल्प समाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतपरिणतिखरूपं यत्परमसाम्यं तदेवपरमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येन तदा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य लक्षणं ज्ञातव्यमिति ॥ ४१ ॥ सुख और दुःख जिसके समान हैं, [प्रशंसा निन्दासमः ] बड़ाई और निन्दा - दोषकथन इन दोनोंमें समान है, [समलोष्टकाञ्चनः ] लोहा और सोना जिसके समान हैं, और [ पुनः जीवितमरणे समः ] प्राणधारण और प्राणत्याग ये दोनोंमें भी समान हैं । भावार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानयुक्त जो चारित्र है, उसको संयम कहते हैं, वही धर्म है, और उसीका नाम साम्यभाव भी है । मोह क्षोभसे रहित जो आत्माका परिणाम वह साम्यभाव है, इससे संयमीका लक्षण साम्यभाव है । शत्रु, मित्र, सुख, दुःख, स्तुति, निंदा सोना, लोहा, जीवन, मरण इत्यादि इष्ट, अनिष्ट विपयोंमें मुनिके भेद नहीं है, समताभाव है । यह मेरा है, यह पर है, यह आनन्द है, यह दुःख है, यह मुझको उत्तम है, यह मुझको हीन है, यह उपकारी है, यह कुछ नहीं, यह जीवन है, यह मेरा विनाश है, इत्यादि जो अनेक विकल्प हैं, वे मोहके अभावसे मुनिके नहीं होते, इसलिये महामुनि राग द्वेषसे रहित हैं, सदाकाल निर्मलज्ञान दर्शनमयी आत्माको अनुभवते हैं, सव इष्ट अनिष्ट विपयों को ज्ञेय - रूप जानते हैं, रागी होके कर्ता नहीं हैं, स्वरूपमें समस्त संकल्प, विकल्पोंसे रहित होके निश्चल तिष्ठे हुए हैं, ऐसे मुनिके जो समताभाव है, वही महामुनिका लक्षण है, इसी लक्षणसे मुनिके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव इनकी एकता और आत्मज्ञानकी एकता सिद्ध हुई जान पड़ती है, इसलिये समभाव मुनिका प्रगट लक्षण है ॥ ४१ ॥
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy