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________________ ३९.] : -प्रवचनसार: ३३१ परमाणुप्रमाणं वा मूर्छा देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि स सिद्धिं न लभते सर्वांगमधरोऽपि ॥ ३९ ॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च खोचितपर्यायविशिष्टमशेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीरादिमूर्चीपरक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलकलङ्ककीलिकाकीलितैः कर्मभिरविमुच्यमानो न सिद्ध्यति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव ॥ ३९ ॥ संयतत्वानां योगपद्यमप्यकिंचित्करमित्युपदिशति-परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विजदि जदि परमाणुमात्रं वा मूर्छा देहादिकेषु विषयेषु यस्य पुरुषस्य पुनर्विद्यते यदि चेत् । सो सिद्धिं ण लहदि स सिद्धिं मुक्ति न लभते। कथंभूतः । सवागमधरो वि सर्वागमधरोऽपीति । अयमत्रार्थ:-सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्ये सति यस्य देहादिविषये स्तोकममत्वं विद्यते तस्य पूर्वसूत्रोक्तं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्न आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव इनकी एकता भी अकार्यकारी है, ऐसा कहते हैं-[यस्य ] जिस पुरुषके [पुनः] फिर [ परमाणुप्रमाणं वा ] परमाणुवरावर भी अतिसूक्ष्म [ देहादिकेषु] शरीरादि परद्रव्योंमें [मूच्छों ] ममता भाव [यदि ] जो [ विद्यते] मौजूद है, तो [सः] वह पुरुष उतने ही मोह कलंकसे [सर्वागमधरोऽपि] द्वादशांगका पाठी होता हुआ भी [सिद्धिं ] मोक्षको [न] नहीं [लभते] पाता । भावार्थ-जैसे हाथमें निर्मल स्फटिकका मणिका अंतर बाहिरसे अच्छा दीखता है, उसी तरह जिन पुरुपोंने समस्त आगमका रहस्य जान लिया है, और उसी आगमके अनुसार त्रिकाल सम्बंधी सकल पर्याय सहित संपूर्ण द्रव्योंके जाननेवाले आत्माको वे जानते हैं, श्रद्धान करते हैं, और आचरण करते हैं। इसी तरह जिस पुरुषके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयम, इस रत्नत्रयकी एकता भी हुई है, परंतु 'वही पुरुप जो किसी कालमें शरीरादि परद्रव्योंमें रागभाव मलसे मलीन हुआ ज्ञानस्वरूप आत्माको वीतराग उपयोग भावरूप नहीं अनुभव करता है, तो वही पुरुप उतने ही सूक्ष्म मोहकलंकसे कीलित काँसे नहीं छूटता-मुक्त नहीं होता। इससे यह वात सिद्ध हुई, कि वीतराग निर्विकल्प समाधिसे आत्मज्ञानसे शून्य पुरुषके आगमज्ञान, तत्त्वार्थ' श्रद्धान और संयमभावोंकी एकता भी कार्यकारी नहीं है, जो आत्मज्ञान सहित हो, तभी क्षका साधक हो सके, इस कारण आत्मज्ञान मोक्षका मुख्य साधन है ॥ ३९ ॥ आगे
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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