SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 477
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - . [अ० ३, गा० ३९शुद्धज्ञानमयात्मकत्वानुभूतिलक्षणज्ञानित्वसद्भावात्कायवाङ्मनःकर्मोपरमप्रवृत्तत्रिगुप्तत्वात् प्रचण्डोपक्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसंतानमुच्छासमात्रेणैव लीलयैव पातयति । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वे योगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ॥ ३८॥ अथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वांगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिंचित्करमित्यनुशास्ति परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज दि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सबागमधरो वि ॥ ३९ ॥ णेति । तद्यथा-बहिर्विषये परमागमाभ्यासबलेन यत्सम्यक्परिज्ञानं तथैव श्रद्धानं व्रताउनुष्ठानं चेति त्रयं तत्रयाधारेणोत्पन्नं सिद्धजीवविषये सम्यक्परिज्ञानं श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूलमनुष्ठानं चेति त्रयं तत्रयांधारेणोत्पन्नं विशदाखण्डैकज्ञानाकारे खशुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं खशुद्धात्मोपादेयभूतरुचिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनं तत्रैवात्मनि रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम् । तत्रयप्रसादेनोत्पन्नं यन्निर्विकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वसंवेदनज्ञानं तदभावादज्ञानी जीवो बहुभवकोटिभिर्यत्कर्म क्षपयति तत्कर्म ज्ञानी जीव; पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति । ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्वसंवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति ॥ ३८ ॥ अथ पूर्वसूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानएक उखासमात्र ( थोड़े ) कालमें ही [ क्षपयति ] क्षय कर देता है । भावार्थ-अज्ञानी जीव क्रियाकांडकी परिपाटीसे और अनेक प्रकारके अज्ञानतपके बलसे जो कर्म क्षय करता है, उसी कर्मके उदयसे राग, द्वेष, भावोंसे सुख दुःखादि विकार भावारूप परिणमता है, पश्चात् नवीन बंध करके सन्तान बढ़ाता है, इस कारण अनेक सौ हजार कोटि पर्यायोंमें भी कर्मोंका क्षय नहीं करता,-मुक्त नहीं होता, अज्ञानीके कर्मकी निर्जरा बंधका ही कारण है, और ज्ञानीके वह स्याद्वाद-ध्वजासे चिन्हित आगमका जानना, तत्त्वार्थ श्रद्धान, और संयमभाव इन तीन रत्नत्रय भावोंकी अधिकताके प्रसादसे अंगीकार की गई शुद्ध ज्ञानमयी आत्मतत्त्वकी अनुभूति, उसरूप ज्ञानके होनेसे मन, वचन, कायकी क्रियाक निरोधसे स्वरूपमें गुप्त है, इस कारण वह ज्ञानी अपनी ज्ञान वैराग्यकी शक्तिके बलसे एक क्षणमें विना ही यत्नके अपनी लीला ही कर असंख्यात लोकमान कौको क्षय कर डालता है, कर्मके उदयमें राग, द्वेष, मोह, भावोंसे रहित है, इसलिये इष्ट अनिष्ट पदार्थोंके संयोगसे सुख दुःख विकारको नहीं धारण करता, इसी कारण नूतन बंधका कर्ता नहीं है, संसारकी संतानका उच्छेदक है, सहज ही मुक्त होता है। इससे यह तात्पर्य जानना, कि आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, और संयमभाव इनकी एकताके होनेपर भी आत्मज्ञान ही को मोक्षके साधनेकी अधिकता है ।। ३८ ॥ आगे आत्मज्ञानशून्य पुरुष
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy