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________________ ३४.] -प्रवचनसारः-- ३२३ तथाच ज्ञेयनिष्ठतया प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनिष्ठत्वमन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया ज्ञप्तिपरिवर्तरूपकर्मणां क्षपणमपि न सिद्ध्येत् । अतः कर्मक्षपणार्थिभिः सर्वथागमः पर्युपास्यः ॥ ३३॥ 'अथागम एवैकश्चक्षुर्मोक्षमार्गमुपसर्पतामित्यनुशास्ति आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सबभूदाणि । देवा य ओहिचक्खू सिद्धा पुण सवदो चक्रलू ॥ ३४ ॥ आगमचक्षुः साधुरिन्द्रियचडूंषि सर्वभूतानि । देवाश्चावधिचक्षुषः सिद्धाः पुनः सर्वतश्चक्षुषः ॥ ३४ ॥ इह तावद्भगवन्तः सिद्धा एव शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तदृष्टित्वादिन्द्रियचभृषि, देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादभेदज्ञानाभावाद्देहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न रोचते । समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति । ततश्च कथं कर्मक्षयो भवति न कथमपीति । ततः कारणान्मोक्षार्थिना परमागमाभ्यास एव कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ॥ ३३ ॥ अथ मोक्षमार्गार्थिनामागम एव दृष्टिरित्याख्याति-आगमचक्खू शुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकपरमागमचक्षुषो भवन्ति । के ते । साहू निश्चयरत्नत्रयाधारेण निजशुद्धात्मसाधकाः साधवः इंदियचक्खूणि निश्चयेनातीन्द्रियामूर्तकेवलज्ञानादिगुणखरूपाण्यपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशादिन्द्रियाधीनत्वेनेन्द्रियचथूपि भवन्ति । कानि कर्तृणि । क्षय किस तरहसे होवे ? नहीं हो सकता, और वही जीव अपनी भूलसे पर ज्ञेयोंमें तिष्ठता है, हरएक पदार्थमें ग्रहण और त्यागसे राग द्वेप भावरूप परिणमन करता है, इसलिये उस जीवका ज्ञान अनादि कालसे उलटा हो रहा है, परमात्मस्वरूपमें स्थिर नहीं होता । ऐसे जीवके अथिर शुद्ध क्षयोपशमरूप ज्ञानकर्मकी भी क्षपणा नहीं होती। जो कि भेदविज्ञानसे शून्य है, और परमात्मज्ञानसे शून्य है । इस कारण अज्ञानीके द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म, अथिर ज्ञानकर्म, इनका नाश नहीं होता। इसलिये इन कर्मोके क्षयके निमित्तकारण आगमका अभ्यास करना योग्य है ॥ ३३ ॥ आगे मोक्षमार्गी जीवोंके एक सिद्धान्त ही नेत्र है, यह कहते हैं-[साधुः] मुनि [ आगलचक्षुः] सिद्धान्तरूपी नेत्रोंवाला होता है, अर्थात् मुनिके मोक्षमार्गकी सिद्धिके निमित्त आगम-नेत्र होते हैं, [सर्वभूतानि ] समस्त संसारी जीव [ इन्द्रियचथूषि] मन सहित स्पर्शनादि छह इन्द्रियोंरूप चक्षुवाले हैं, अर्थात् संसारी जीवोंके इष्ट अनिष्ट विपयोंके जाननेके लिये इन्द्रिय ही नेत्र हैं, [च ] और [ देवाः ] चार तरहके देव [ अवधिचक्षुषः ] अवधिज्ञानरूप नेत्रोंवाले हैं, अर्थात् देवताओंके सूक्ष्म मूर्तीक द्रव्य देखनेको अवधिज्ञान नेत्र हैं, लेकिन वह अवधिज्ञान इन्द्रियज्ञानसे विशेप नहीं, क्योंकि अवधि मर्तव्यको ग्रहण करता है, और इन्द्रिय नेत्र भी मूर्तीकको ग्रहण करता है, इससे इन
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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