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________________ २८४ , - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० ३, गा० ११यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ॥१०॥ अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानमुपदिशति- पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेहम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुबिया किरिया ॥ ११ ॥ छेदपउत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि । आसेजालोचित्ता उवदिटुं तेण कायचं ॥ १२॥ जुगलं । पकसंज्ञो गुरुरस्ति इति गुरुव्यवस्था निरूपयति-लिंगग्गहणे तेसिं लिङ्गग्रहणे तेपां तपोधनानां गुरु त्ति होदि गुरुर्भवतीति । स कः । पवज्जदायगो निर्विकल्पसमाधिरूपपरमसामायिकप्रतिपादको योऽसौ प्रव्रज्यादायकः स एव दीक्षागुरुः छेदेसु अ वट्टगा छेदयोश्च वर्तकाः ये सेसा णिज्जावगा समणा ते शेषाः श्रमणा निर्यापका भवन्ति शिक्षागुरवश्व भवन्तीति । अयमत्रार्थ:-निर्विकल्पकसमाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशच्छेदः, सर्वया च्युतिः सकलदेशच्छेद इति देशसकलभेदेन द्विधा छेदः । तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । दीक्षा दायकस्तु दीक्षागुरुरित्यभिप्रायः ॥ १० ॥ अथ पूर्वसूत्रोक्तच्छेदद्वयस्य प्रायश्चित्तविधानं कथयतिपयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्टम्हि जायदि जदि प्रयतायां समारब्धायां छेदः भी इसका गुरू होता है, यह कहते हैं-[ तेषां ] पूर्वोक्त मुनियोंके [लिङ्गग्रहणे] मुनिलिङ्ग ग्रहणकी अवस्थामें [गुरु: ] जो गुरू होता है, वह [प्रव्रज्यादायकः] दीक्षाको देनेवाला [भवति] होता है, अर्थात् कहा जाता है, [छेदयोः] एक देश सर्वदेशके भेदकर जो दो प्रकारके छेद अर्थात् संयमके भेद उनके [ उपस्थापकाः] उपदेश देकर फिर स्थापन करनेवाले [शेषाः ] अन्य [श्रमणाः] यत्याचारमें अति प्रवीण महामुनि हैं, वे [निर्यापकाः] निर्यापकगुरु कहे जाते हैं। भावार्थप्रथम तो जिस आचार्यके पाससे मुनिपटुकी दीक्षा लीजावे, वह गुरू दीक्षादायक कहा जाता है, और दीक्षा लेनेके बाद अंतरंग एकदेश जो कभी संयमका भंग हुआ हो, तो जिस गुरूके उपदेशसे फिर उस संचमकी स्थापना कीजावे, वह गुरु निर्यापक कहा जाता है, अथवा यदि जिस संयमका सर्वथा ही नाश हुआ हो, तो वह संयम जिस गुरूके उपदेशसे फिर अंगीकार किया जाये, वह गुरू भी निर्यापक कहा जाता है. ॥१०॥ आगे जो संयमरूप वृक्ष भंग हुआ हो, तो उसके जोड़नेकी विधि दिखलाते हैं;-[प्रयतायां] यत्नपूर्वक [ समारब्धायां] आरम्भ हुई [कायचेष्टायां] शरीरकी क्रिया
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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