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________________ १०.] -प्रवचनसार: २८३ वश्यकमचेलक्यमस्तानं क्षितिशयनमदन्तधावनं स्थितिभोजनमेकभक्तश्चैवं एते निर्विकल्पसामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलवलयाङ्गुलीयादिपरिग्रहः किल श्रेयान् , न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति ॥ ८ ॥९॥ अथास्य प्रव्रज्यादायक इव छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारेणोपदिशति लिंगरगहणे तेसिं गुरु त्ति पबज्जदायगो होदि । छेदेसु अ वगा सेसा णिजावगा समणा ॥१०॥ लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति । छेदयोश्च वर्तकाः शेषा निर्यापकाः श्रमणाः ॥१०॥ गुणो भवति । यदा पुनर्निर्विकल्पसमाधौ समर्थो न भवत्ययं जीवस्तदा यथा कोऽपि सुवर्णार्थी पुरुषः सुवर्णमलभमानस्तत्पर्यायानपि कुण्डलादीन् गृह्णाति न च सर्वथा त्यागं करोति, तथायं जीवोऽपि निश्चयमूलगुणाभिधानपरमसमाध्यभावे छेदोपस्थापनं चारित्रं गृह्णाति । छेदे सत्युपस्थापनं छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदेन व्रतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनम् । तच्च संक्षेपेण पञ्चमहाव्रतरूपं भवति । तेषां व्रतानां च रक्षणार्थ पञ्चसमित्यादिभेदेन पुनरष्टाविंशतिमूलगुणभेदा भवन्ति । तेपां च मूलगुणानां रक्षणार्थं द्वाविंशतिपरीपहजयद्वादशविधतपश्चरणभेदेन चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणा भवन्ति तेषां च रक्षणार्थं देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृतचतुर्विधोपसर्गजयद्वादशानुप्रेक्षाभावनादयश्चेत्यभिप्रायः ॥ ८॥ ९॥ एवं मूलोत्तरगुणकथनरूपेण द्वितीयस्थले सूत्रद्वयं गतम् । अथास्य तपोधनस्य प्रव्रज्यादायक इवान्योऽपि निर्यातो उसी भेदमें फिर आत्माको स्थापन करे, उस अवस्थामें छेदोपस्थापक होता है । जैसे कोई पुरुष सुवर्णका इच्छुक है, उस पुरुषको सोनेकी कंकण, कुंडल, मुद्रिका, आदि जितनी पर्यायें हैं, वे सब ग्रहण करना कल्याणकारी है, ऐसा नहीं है, कि सोना ही ग्रहण योग्य है, उसके भेद-पर्याय ग्रहण योग्य नहीं हों । यदि भेदोंको ग्रहण नहीं करेगा, तो सोनेकी प्राप्ति कहाँसे हो सकती है ? क्योंकि सोना तो उन भेदोंस्वरूप ही है, इस कारण सोनेके सब पर्याय-भेद ग्रहण करने योग्य हैं। उसी प्रकार निर्विकल्प सामायिक संयमका जो अभिलापी है, उसको उस सामायिकके भेद २८ मूलगुण भी ग्रहण करने योग्य हैं, क्योंकि सामायिक इन मूलगुणोंरूप है, इस कारण इन गुणोंमें वह मुनि सावधान होता है, यदि किसी कारणसे कमी भंग होजावे, तो फिर स्थापन करता है ॥ ८ ॥ ९ ॥ आगे जैसे इस मुनिको दीक्षाके देनेवाले आचार्य होते हैं, उसी प्रकार इसके संयम भंग हुआ हो, तो उपदेश देकर संयमके भेदोंमें फिर स्थापन करे, इस प्रकार भेदका बतलानेवाला दूसरा
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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