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________________ -प्रवचनसार: २७९ भूषणधारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावद्ययोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्वस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितकेशश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च भवत्येव, तदेतद्वहिरङ्ग लिङ्गम् । तथात्मनो यथाजातरूपधरत्वापसारितायथाजातरूपधरत्वप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावानामभावादेव तद्भावभाविनो ममत्वकर्मप्रक्रमपरिणामस्य शुभाशुभोपरत्तोपयोगतत्पूर्वकतथाविधयोगाशुद्धियुक्तत्वस्य परद्रव्यसापेक्षत्वस्य रहितत्वादप्रतिकर्म भवति । किम् । लिंगं एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं लिङ्गं द्रव्यलिङ्गं ज्ञातव्यमिति प्रथमगाथा गता ॥ मुच्छारंभविमुकं परद्रव्यकाङ्क्षारहितनिर्मोहपरमात्मज्योतिर्विलक्षणा बाह्यद्रव्ये ममत्वबुद्धिमूर्छा भण्यते, मनोवाक्कायव्यापाररहितचिच्चमत्कारप्रतिपक्षभूत आरम्भो व्यापारस्ताभ्यां मूर्छारम्भाभ्यां विमुक्तं मूर्छारम्भविमुक्तम् । जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं निर्विकारस्वसंवेदनलक्षण उपयोगः निर्विकल्पसमाधिोगः तयोरुपयोगयोगयोः शुद्धिरुपयोगयोगशुद्धिस्तया युक्तम् । ण परावेक्खं निर्मलानुभूतिपरिणतेः परस्य परद्रव्यस्यापेक्षया रहितं न परापेक्षम् । अपुणब्भवकारणं पुनर्भवविनाशकशुद्धात्मपरिणामाविपरीतापुनर्भवस्य मोक्षस्य कारणमपुनर्भवकारणम् । जेण्हं जिनस्य संबन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् । एवं पञ्च[लिङ्गं] मुनीश्वरके द्रव्यलिंग [भवति] होता है । तथा [मूर्छारम्भवियुक्तं] परद्रव्यमें मोहसे उत्पन्न ममतारूप परिणामोंके आरंभसे रहित [ उपयोगयोगशुद्विभ्यां ] ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग और मन वचन कायकी क्रियारूप योग इनकी शुद्धि अर्थात् शुभाशुभरूप रंजकतासे रहित भावरूप उपयोगशुद्धि और योगपरिणतिकी निश्चलतारूप योगशुद्धि इस तरह दो प्रकारकी शुद्धताकर [युक्तं ] सहित [ न परापेक्षं ] परकी अपेक्षा नहीं रखनेवाला [ अपुनर्भवकारणं] और मोक्षका कारण ऐसा [जैनं लिङ्गं] जिनेन्द्रकर कहा हुआ भावलिंग होता है । भावार्थ-यथाजातरूप ( निग्रंथपने ) पदके रोकनेवाले जो राग, द्वेष, मोह, भाव हैं, उनका जब अभाव होता है, तब यह आत्मा आप ही से परिपाटी (क्रम ) के अनुसार यथाजातरूपका धारक होता है। उस अवस्थामें इस जीवके रागादि भावोंके वढ़ानेवाले जो वस्त्र आभूषण हैं, उनका अभाव तथा सिर डाढीके बालोंकी रक्षाका अभाव होता है, निष्परिग्रह दशा होती है, पापक्रियासे रहित होता है, और शरीर मंडनादिक क्रियासे रहित होता है, अर्थात् जैसा मुनिका स्वरूप बाह्यदशासे होता है, वैसा ही बन जाता है, यह द्रव्यलिंग जानना । तथा इस आत्माके जैसा निर्ममत्वादि अंतरंगमें मुनिपद कहा है, वैसी ही अवस्थाकर जो स्वरूपका होना उसके रोकनेवाले जो राग द्वेष मोह भाव हैं, उनका जब अभाव होता है, तब इस आत्माके स्वाभाविक मोक्षका कारण, अहंकार ममता भाव रहित, उपयोगकी शुद्धता संयुक्त, स्वाधीन, अंतरंगलिंग प्रगट होता है । इस प्रकार जब यह आत्मा वाह्य चिन्होंसे और अंतरंग चिन्होंसे यथाजातरूपका
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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