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________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ५३चेन्नैवं; एकदेशवृत्तेः सर्ववृत्तित्वविरोधात् । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यः सूक्ष्मो वृत्त्यशः स समयो न तत्तदेकदेशस्य, तिर्यक्प्रचयस्योर्ध्वप्रचयत्वप्रसंगाच । तथाहि-प्रथममेकेन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यन्यतरेणेति तिर्यक्प्रचयोऽप्यूर्ध्वप्रचयीभूय प्रदेशमात्रं द्रव्यमवस्थापयति । ततस्तियाचयस्योर्ध्वप्रचयत्वमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमानं कालद्रव्यं व्यवस्थापयितव्यम् ॥५२॥ अथैवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति सपदेसेहिं समग्गो लोगो अटेहिं णिट्टिदो णिचो। जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्केण संबद्धो ॥५३॥ स्वप्रदेशैः समग्रो लोकोऽनिष्ठितो नित्यः । यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्केन संबद्धः ॥ ५३॥ एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावैः पदार्थैः समग्र काललब्धिवशेनैव । तथापि तत्र निजपरमात्मोपादेयरुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं यन्निश्वयसम्यक्त्वं तस्यैव मुख्यत्वं, न च कालस्य, तेन स हेय इति । तथा चोक्तम्-"किं पलविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गया काले सिज्झिहहिं जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं" ॥ ५२ ॥ एवं निश्चयकालव्याख्यानमुख्यत्वेनाष्टमस्थले गाथात्रयं गतम् । इति पूर्वोक्तप्रकारेण 'दबं जीवमजीवं' इत्यायेकोनविंशतिगाथामिः स्थलाष्टकेन विशेषज्ञेयाधिकारः समाप्तः ॥ प्रदेश प्रति जानेसे समयपर्यायका भेद नहीं होता, क्योंकि अखंडद्रव्यसे एकप्रदेश में 'समयपर्यायके होनेपर सभी जगह समयपर्याय है। कालकी एकतासे समयका भेद नहीं .. हो सकता । इसलिये ऐसा है, कि सबसे सूक्ष्म कालपर्याय समय है । वह कालाणुके भिन्न भिन्नपनेसे सिद्ध होता है, एकतासे नहीं । कालके अखंड माननेसे और भी दोष आता है, कालके तिर्यक्प्रचय नहीं है, ऊर्ध्वप्रचय है । जो कालको असंख्यात प्रदेशी माना जावे, तो कालके तिर्यक्रप्रचय होना चाहिये, वही तिर्यक ऊर्वप्रचय हो जावेगा। वह इस तरहसे है:-असंख्यात प्रदेशी काल प्रथम एक प्रदेशकर प्रवृत्त होता है। इससे आगे अन्य प्रदेशसे प्रवृत्त होता है, उससे भी आगे अन्य प्रदेशसे प्रवृत्त होता है, इस तरह क्रमसे असंख्यात प्रदेशोंसे प्रवृत्त होवे, तो तिर्यक्प्रचय ही ऊर्ध्वप्रचय हो जावेगा। एक एक प्रदेशमें कालद्रव्यको क्रमसे प्रवृत्त होनेसे कालद्रव्य भी प्रदेशमात्र ही स्थित (सिद्ध) होता है। इस कारण जो पुरुष तिर्यक्प्रचयमें ऊर्ध्वप्रचयका दोप नहीं चाहते हैं, वे पहले ही प्रदेशमात्र कालद्रव्यको मानें, जिससे कि कालद्रव्यकी सिद्धि अच्छी तरह होवे ॥ ५२ ।। इस तरह पूर्वोक्त विशेषज्ञेयतत्त्वका वर्णन किया। आगे ज्ञान-ज्ञेयसे आत्मा निश्चय करके उसको समस्त परभावोंसे जुदा दिखलानेके लिये व्यवहार जीवपनेका ।
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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