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________________ २०५ ५२.] -प्रवचनसार:धौव्यमेव कुतस्त्यम् । एवं सति नश्यति त्रैलक्षण्यं, उल्लसति क्षणभङ्गः, अस्तमुपैति नित्यं द्रव्यं, उदीयन्ते क्षणक्षयिणो भावाः । ततस्तत्त्वविप्लवभयात्कश्चिदवश्यमाश्रयो भूतो वृत्तेवृत्तिमाननुसतव्यः । स तु प्रदेश एवाप्रदेशस्यान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाप्रसिद्धः । एवं सप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत एकद्रव्यनिबन्धनं लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वं नाभ्युपगम्येत । पर्यायसमयाप्रसिद्धेः। प्रदेशमात्रं हि द्रव्यसमयमतिकामतः परमाणोः पर्यायः समयः प्रसिद्ध्यति । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वे तु द्रव्यसमयस्य कुतस्त्या तत्सिद्धिः । लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशकद्रव्यत्वेऽपि तस्यैकप्रदेशमतिकामतः परमाणोस्तत्सिद्धिरिति विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यम् । कस्य भविष्यति । न कस्यापि । तथा कालद्रव्याभावे वर्तमानसमयरूपोत्पादो भूतसमयरूपो विनाशस्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यम् । कस्य भविष्यति । न कस्यापि । एवं सत्येतदायाति-अन्यस्य भङ्गोऽन्यस्योत्पादोऽन्यस्य ध्रौव्यमिति सर्व वस्तुखरूपं विप्लवते । तस्माद्वस्तुविप्लवभयादुत्पादव्ययध्रौव्याणां कोऽप्येक आधारभूतोऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यः । स चैकप्रदेशरूपः कालागुपदार्थ एवेति । अत्रातीतानन्तकाले ये केचन सिद्धसुखभाजनं जाता, भाविकालं चात्मोपादानसिद्ध स्वयमतिशयवदित्यादिविशेषेण विशिष्टसिद्धसुखस्य भाजनं भविष्यन्ति ते सर्वेऽपि परंपरा संतान द्रव्यपनेसे ध्रौव्य है । इस तरह द्रव्य विना ही ये तीनों भाव सध सकते हैं," तो ऐसा माननेसे तीनों भाव एक समयमें सिद्ध नहीं हो सकते, क्योंकि जिस अंशका नाश है, उसका नाश ही है, और जिसका उत्पाद है वह, उत्पादरूप ही हैं। उत्पाद व्यय एकमें किस तरह होसकते हैं, और ध्रौव्य भी कहाँ रह सकता है, और ऐसा माननेपर इन भावोंके नाश होनेका प्रसंग आता है, तथा बौद्धधर्मका प्रवेश होता है । ऐसा होनेसे नित्यपनेका अभाव हो जायगा, और द्रव्य क्षणविनाशी होने लगेगा, इत्यादि अनेक दोष आ जायेंगे । इस कारण समयपर्यायका आधारभूत प्रदेशमात्र कालद्रव्य अवश्य स्वीकार करना चाहिये । प्रदेशमात्र द्रव्यमें एक ही समय अच्छी तरह उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य. सध जाते हैं। जो कोई ऐसा कहे "कि कालद्रव्यके जब प्रदेशकी स्थापना की, तो असंख्यात कालाणुओंको भिन्न माननेकी क्या आवश्यकता है ? एक अखंड लोकपरिमाण द्रव्य मानलेना चाहिये । उसीसे समय उत्पन्न होसकता है", तो उसका समाधान यह है, कि जो अखंड कालद्रव्य होवे, तो समयपर्याय उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि पुद्गलपरमाणु जव एक कालाणुको छोड़कर दूसरे कालाणुप्रति मंदगतिसे जाता है, तब उस जगह दोनों कालाणु जुदा जुदा होनेसे समयका भेद होता है । जो एक अखंड लोकपरिमाण कालद्रव्य होवे, तो समयपर्यायकी सिद्धि किस तरह हो सकती है ? यदि कहो, "कि कालद्रव्य लोक. परिमाण असंख्यातप्रदेशी है, उसके एकप्रदेशसे दूसरे प्रदेश प्रति जव पुद्गलपरमाणु ' , तब समयपर्यायकी सिद्धि हो जायगी," तो उसका उत्तर यह है, कि ऐसा कहनेसे . : दोष आवेगा । वह इस प्रकार है-एक अखंड कालद्रव्यके एक प्रदेशसे दूसरे
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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