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________________ १८६ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ४०-.. नोत्खातगुणलक्षणत्वान्मूर्तद्रव्यगुणोऽपि न भवति । पर्यायलक्षणं हि कादाचित्कत्वं गुणलक्षणं तु नित्यत्वम् । ततः कादाचित्कत्वोत्खातनित्यत्वस्य न शब्दस्यास्ति गुणत्वम् । यत्तु तत्र नित्यत्वं तत्तदारम्भकपुद्गलानां तद्गुणानां च स्पर्शादीनामेव न शब्दपर्यायस्येति दृढतरं ग्राह्यम् । न च पुद्गलपर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कन्धस्येव स्पर्शनादीन्द्रियविषयत्वम् । अपां प्राणेन्द्रियाविषयत्वात् , ज्योतिषो प्राणरसनेन्द्रियाविषयत्वात् , मरुतो प्राणरसनचक्षुरिन्द्रियाविषयत्वाच । न चागन्धागन्धरसागन्धरसवर्णाः, एवमज्योतिर्मारुतः, सर्वचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तेन घणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथा वानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धनेऽसति परमाणुपुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति । सदो सो पोग्गलो यस्तु शब्दः स पौद्गलः यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं शब्दः पुद्गलस्य विभावपर्यायो न च गुणः । कस्मात् । गुणस्याविनश्वरत्वात् अयं च विनश्वरो । नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदल्याकाशगुणोऽयं शब्दः । परिहारमाह-आकाशगुणत्वे सत्यमूर्तो भवति । अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो पुद्गलोंके स्पर्शादि चार गुण नियमसे पाये जाते हैं, अमूर्त द्रव्यके ये चारों नहीं पाये जाते, इसी लिये ये गुण पुद्गलके चिह्न हैं । शब्द भी कर्ण-इन्द्रियसे ग्रहण किया जाता है, परंतु वहपुद्गलकी पर्याय है, गुण नहीं है, क्योंकि अनेक पुद्गलस्कंधोंके संयोगसे उत्पन्न होता है, इसलिये पर्याय है । जो कोई अन्यवादी शब्दको आकाशद्रव्यका गुण मानते हैं, उनका कहना अप्रमाण है, क्योंकि आकाशद्रव्य अमूर्तीक है, इसलिये इंद्रिय-प्रत्यक्ष नहीं होता, और कर्ण-इन्द्रियसे ग्रहण किया जाता है। नियम ऐसा है, कि जिसका कारण इंद्रिय-ग्रहण योग्य न हो, उसका कार्य भी इन्द्रिय-ग्रहण योग्य नहीं हो सकता । यदि शब्द इन्द्रियसे ग्राह्य है, तो अमूर्त आकाश भी कर्ण-इन्द्रियसे ग्राह्य होना चाहिये । शब्द गुण है, गुण-गुणीके प्रदेश कभी जुड़ होते नहीं हैं, इस कारण शब्दके ग्रहण होनेसे आकाश भी अवश्य कर्ण-इन्द्रियसे प्रत्यक्ष होना चाहिये, परंतु वह आकाश तो कभी इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता नहीं है, इसलिये शब्द आकाशका गुण कदापि नहीं हो सकता। यहाँपर भी कोई ऐसी तर्क करे, कि पुद्गलद्रव्य मूर्तीक है, उसका ही गुण शब्द हो जाना चाहिये, पुद्गलकी पर्याय क्यों कहते हो? इसका समाधान इस तरह है, कि पर्यायका लक्षण अनित्य है, और गुणका लक्षण नित्य है। यदि शब्द पुद्गलका गुण कहा जावे, तो पुद्गल हमेशा शब्दरूप ही प्राप्त होना चाहिये, परंतु ऐसा नहीं है । जव स्कंधोंका संयोग होता है, तव शब्द होता है, इसलिये पर्याय ही है, गुण नहीं है, ऐसा निश्चयकर जानना । यदि कोई यह कहे, कि जैसे भूमि पुद्गलकी पर्याय है, वह स्पर्शनादि चार इन्द्रियोंसे ग्रहण की जाती है, उसी प्रकार शब्द भी चार इन्द्रियोंसे प्रत्यक्ष होना चाहिये, एक कर्णइन्द्रियसे. ही प्रत्यक्ष क्यों. कहते हो ? उसका उत्तर इस तरहसे है, कि जल पुद्गलकी
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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