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________________ १७८ -रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा० ३५प्राप्यः कर्मास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यमनाकुलत्वलक्षणं सौख्याख्यं कर्मफलमस्मि । एवमस्य बन्धपद्धतौ मोक्षपद्धतौ चात्मानमेकमेव भावयतः परमाणोरिवैकत्वप्रभावनोन्मुखस्य परद्रव्यपरिणतिर्न जातु जायते । परमाणुरिव भावितैकत्वश्च परेण नो संपृच्यते । ततः परद्रव्यासंपृक्तत्वात्सुविशुद्धो भवति । कर्तृकरणकर्मकर्मफलानि चात्मत्वेन भावयन् पर्यायैर्न संकीर्यते, ततः पर्यायासंकीर्णत्वाच सुविशुद्धो भवतीति । द्रव्यान्तरव्यतिकरादपसारितात्मा सामान्यमजितसमस्तविशेषजातः इत्येष शुद्धनय, उद्धतमोहलक्ष्मीलुण्टाक उत्कटविवेकविविक्ततत्त्वः ॥ ३४ ॥ "इत्युच्छेदात्परपरिणतः कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिरालब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मूर्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव॥" "द्रव्यसामान्यविज्ञाननिम्नं कृत्वेति मानसम् । तद्विशेषपरिज्ञानप्राग्भारः क्रियतेऽधुना ॥" इति द्रव्यसामान्यप्रज्ञापनम् । अथ द्रव्यविशेषप्रज्ञापनं तत्र द्रव्यस्य जीवाजीवत्वविशेषं निश्चिनोति दवं जीवमजीवं जीवो पुण चेदणोवजोगमओ। पोग्गलदवप्पमुहं अचेदणं हवदि अजीवं ॥ ३५ ॥ नैवान्यं रागादिपरिणामं यदिचेत् अप्पाणं लहदि सुद्धं तदात्मानं भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितत्वेन शुद्धं शुद्धबुद्धैकखभावं लभते प्राप्नोति इत्यभिप्रायो भगवतां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवानाम् ॥३४॥ एवमेकसूत्रेण पञ्चमस्थलं गतम् । इति सामान्यज्ञेयाधिकारमध्ये स्थलपञ्चकेन भेदभावना स्वाधीन कर्ता हूँ, मैं ही एक निर्मल चैतन्य भावकर शुद्ध स्वभावका अतिशयसे साधनेवाला करण हूँ, मैं ही एक निर्मल चैतन्य परिणमन स्वभावसे शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता हूँ, इसलिये कर्म हूँ, और मैं ही एक निर्मल चैतन्यस्वभावकर उत्पन्न आकुलता रहित आत्मीक-सुखरूप कर्मफल हूँ, इसलिये ज्ञानदशामें भी मैं ही अकेला हुआ, इन चारों भेदोंसे अभेदरूप परिणमन करता हूँ, दूसरा कोई भी नहीं। इस प्रकार इस जीवके वंधपद्धति और मोक्ष-पद्धतिके होनेपर भी एक आत्म-स्वरूपकी भावना (चितवन) से परद्रव्यरूप परिणति किसी समय भी नहीं हो सकती। जैसे एक भावरूप परिणत हुए परमाणुका अन्य परमाणुके साथ संयोग नहीं होता, उसी तरह आत्माका भी परद्रव्यके साथ संबंध नहीं होता है, इसलिये अशुद्ध पर्यायोंसे भी संबंध नहीं होता। इस तरह ज्ञानी निर्मल होता है। इसी कारण अन्य द्रव्योंसे भिन्न स्वरूप कर्ता, करण, कर्म, फल आदि सव भेदोंसे रहित अभेदरूप शुद्ध नयकर मोहका विनाशक ऐसा प्रकाशरूप ज्ञानतत्त्व इस जीवके शोभा पाता है । सारांश-जव इस जीवके पर वस्तुमें परिणति मिट जाती है, और कर्त्ता कर्म भेदरूप भ्रम (अज्ञान) का नाश होता है, तभी शुद्ध स्वरूपको पाकर ज्ञानमात्र निर्मल आत्मीक-प्रकाशमें साहजिक महिमा सहित सदा मुक्त हुआ ही तिष्ठता है ॥ ३४ ॥ इस प्रकार द्रव्यका सामान्यवर्णन पूर्ण हुआ। . .
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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