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________________ ३४.] -प्रवचनसारःचित्परिणमनस्वभावस्य निष्पाद्यं सौख्यं विपर्यस्तलक्षणं दुःखाख्यं कर्मफलमासम् । इदानीं पुनरनादिप्रसिद्धपौगलिककर्मबन्धनोपाधिसन्निधिध्वंसविस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्ति पापुष्पसंनिधिध्वंसविस्फुरितसुविशुद्धसहजात्मवृत्तिः स्फटिकमणिरिव विश्रान्तपरारोपितविकारोऽहमेकान्तेनास्मि मुमुक्षुः, इदानीमपि न नाम मम कोऽप्यस्ति, इदानीमप्यहमेक इव सुविशुद्धचित्स्वभावेन स्वतन्त्रः कर्तास्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्स्वभावेन साधकतमः करणमस्मि, अहमेक एव च सुविशुद्धचित्परिणमनस्वभावेनात्मना कर्मकारकमस्मि । फलं च शुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मनः साध्यं निष्पाद्यं निजशुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादपरिणतिरूपमहमेक एव फलं चास्मि णिच्छिदो एवमुक्तप्रकारेण निश्चितमतिः सन् समणो सुखदुःखजीवितमरणशत्रुमित्रादिसमताभावनापरिणतः श्रमणः परममुनिः परिणमदि णेव अण्णं जदि परिणमति वह कर्म [च] और [फलं] कर्मका फल ये चारों [आत्मा इति] आत्मा ही हैं, ऐसा [निश्चितः] निश्चय करनेवाला [श्रमणः] भेदविज्ञानी मुनि [ यदि] जो [अन्यत् ] परद्रव्यरूप [नैव] नहीं [परिणमति] परिणमन करता है, [तदा] तभी [शुद्धं आत्मानं] शुद्ध अर्थात् कर्मोपाधिरहित शुद्ध चिदानंदरूप आत्माको [ लभते] पाता है । भावार्थ-जब यह जीव परद्रव्यके संबंधसे आमाको जुदा जानकर शुद्ध कर्ता, शुद्ध करण, शुद्ध कर्म, शुद्ध फल, इन चारों भेदोंसे आत्माको अभेदरूप समझता है, इनसे एकताका निश्चयकर किसी कालमें भी परद्रव्यसे एकपना मानके परिणमन नहीं करता, वहीं जीव अभेदरूप ज्ञायकमात्र अपने शुद्ध स्वरूपको प्राप्त होता है । इसी कथनको विशेषतासे दिखाते हैं-जैसे लाल पुष्पके संयोगसे स्फटिकमणिमें राग-विकार उत्पन्न हो जाता है, उसी तरह अनादि कालसे पुद्गलकर्मके बंधनरूप उपाधिके संबंधसे जिसके रागवृत्ति उत्पन्न हुई है, ऐसा मैं परकृत विकारसहित पूर्व ही अज्ञान दशामें संसारी था, उस समयमें भी मेरा अन्य द्रव्य कोई भी नहीं संबंधी था, ऐसी अवस्थामें भी अकेला ही मैं अपनी भूलसे सराग चैतन्यभाव कर कर्ता हुआ। मैं ही एक सराग चैतन्यभावकर अज्ञान भावका मुख्य कारण हुआ, इससे करण भी मैं ही कहलाया । मैं ही एक सराग चैतन्यपरिणति स्वभावसे अपने अशुद्ध भावको प्राप्त हुआ, इसलिये कर्म मैं ही हुआ। तथा मैं ही एक सराग चैतन्यभावसे उत्पन्न और आत्मीक-सुखसे उलटा ऐसा दुःखरूप कर्मफल हुआ, इस कारण अज्ञान दशामें भी मैं इन चारों भेदोंसे अभेदरूप परिणत हुआ, और अव ज्ञान दशामें जैसे रक्त पुष्पके संयोगके छूट जानेसे स्फटिकमणि निर्मल स्वाभाविक शुद्ध हो जाता है, वैसे मैं भी सर्वथा प्रकृतियोंके विकारसे रहित हुआ, निर्मल मोक्षमार्गमें प्रवर्तता हूँ, तो अब भी मेरा कोई नहीं, अब मैं ही एक निर्मल चैतन्यभावसे 'प्र. २३
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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