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________________ १५८ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० २, गा०२१-- नोज्झति । यदि नोज्झति कथमन्यो नाम स्यात् , येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न स्यात् ॥ २०॥ अथासदुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति मणुवो ण हवदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एवं अहोजमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ॥ २१॥ ..... ., मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो वा । .. . ... एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ॥ २१ ॥ . पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु भव: त्यसन्त एव । यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती खकाले प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव । ततः, पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्यो पृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पादः । तथाहि-न हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात् न रूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति भावार्थः ॥ २० ॥ अथ द्रव्यस्यासदुत्पाद पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोति-मणुवोण हवदि देवो आकुलत्वोत्पादकमनुजः देवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलल्वरूपखभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देव-, 'पर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्माद्देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् । देवो चा माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति । कस्मात् । पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात् , सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव । आदि पर्यायरूप हो जाता है। इन सब अवस्थाओंमें अविनाशी द्रव्य वहीं एक है, दूसरा नहीं । इसलिये सत्उत्पादकी अपेक्षा सब पर्यायोंमें वही अविनाशी वस्तु है, ऐसा सिद्ध हुआ ॥ २० ॥ आगे असत्उत्पादको अन्यरूपसे दिखाते हैं-[मनुजः] जो मनुष्य है, वह [ देवः] देव [वा] अथवा [ देवः] देव है, वह [मानुषः] मनुष्य [वा]. अथवा [सिद्धः] सिद्ध अर्थात् मोक्ष-पर्यायरूप [न भवति] नहीं हो सकता, [एवं अभवन् ] इस प्रकार नहीं होता हुआ [अनन्यभावं] अभिन्नपनेको [कथं ] किस तरह [लभते] प्राप्त हो सकता है ? । भावार्थ-जो देव मनुष्यादि पर्याय हैं, वे सब एक कालमें नहीं होते, किंतु जुदा जुदा समयमें होते हैं। जिस समय देव-पर्याय है उस समय मनुष्यादि पर्याय नहीं है, एक ही पर्याय हो सकती है। इस कारण जो एक पर्याय होती है, वह अन्यरूप नहीं हो सकती। सब जुदा जुदा ही पर्याय होते हैं। इसलिये पर्यायका कर्ता, करण, द्रव्य, आधार है, सो द्रव्य पर्यायसे जुदा नहीं है, पर्यायके पलंटनेसे द्रव्य भी व्यवहारसे अन्य कहा जाता है । जैसे-मनुष्य-पर्यायरूप जीव देव-पर्यायरूप वा सिद्ध-पर्यायरूप नहीं होता, और. देव-पर्यायरूपजीव मनुष्य-पर्यायरूप
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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