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________________ - रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला - [अ० १, गा० ३२अथैवं ज्ञानिनोऽथैः सहान्योन्यवृत्तिमत्त्वेऽपि परग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावेन सर्वं पश्यतोऽध्यवस्यतश्चात्यन्तविविक्तत्वं भावयति गेण्हदि णेव ण मुंचदि ण परं परिणमदि केवली भगवं । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सवं णिरवसेसं ॥ ३२ ॥ गृह्णाति नैव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्यति समन्ततः स जानाति सर्वं निरवशेषम् ॥ ३२ ॥ अयं खल्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षणपरिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य निष्कम्पोन्मजज्योतिर्जात्यमणिकल्पो भूत्वाऽवतिष्ठमानः सद्वारेण पदार्था अपि व्यवहारेण ज्ञानगता भण्यन्त इति ॥ ३१ ॥ अथ ज्ञानिनः पदार्थः सह यद्यपि व्यवहारेण ग्राह्यग्राहकसम्बन्धोऽस्ति तथापि संश्लेषादिसम्बन्धो नास्ति, तेन कारणेन ज्ञेयपदार्थैः सह भिन्नत्वमेवेति प्रतिपादयति-गेण्हदि णेव ण मुंचदि गृह्णाति नैव मुञ्चति नैव ण परं परिणमदि परं परद्रव्यं ज्ञेयपदार्थ नैव परिणमति । स कः कर्ता । केवली भगवं केवली भगवान् सर्वज्ञः । ततो ज्ञायते परद्रव्येण सह भिन्नत्वमेव । तर्हि किं परद्रव्यं , न जानाति । पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सवं जिरवसेसं तथापि व्यवहारनयेन पश्यति समन्ततः सर्वव्यक्षेत्रकालभावैर्जानाति च सर्व निरवशेषम् । अथवा द्वितीयव्याख्यानम्-अभ्यन्तरे कामक्रोधादि बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिकं वहिव्यं न गृह्णाति, स्वकीयाक्योंकि जब आरसीमें स्वच्छपना है, तब घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी समय आरसी भी सवके आकार होजाती है। इसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयको तब जानता है, जव अपनी ज्ञायकशक्तिसे सब पदार्थोके आकार होजाता है, और जब सब पदार्थोंके आकार हुआ, तो सव पदार्थ इस ज्ञानमें स्थित क्यों न कहे जायँगे ? व्यवहारसे अवश्य ही कहे जायँगे । इससे यह सिद्ध हुआ, कि ज्ञान और पदार्थ दोनों ही एक दूसरेमें मौजूद हैं ।। ३१ ।। ___ आगे आत्मा और पदार्थोंका उपचारसे यद्यपि आपसमें ज्ञेयज्ञायक संबंध है, तो भी निश्चयनयसे परपदार्थके ग्रहण तथा त्यागरूप परिणामके अभावसे सब पदार्थोंको देखने जाननेपर भी अत्यंत पृथक्पना है, ऐसा दिखाते हैं-[ केवली भगवान् ] केवलज्ञानी सर्वज्ञदेव [परं] ज्ञेयभूत परपदार्थोको [नैव ] निश्चयसे न तो [गृह्णाति] ग्रहण करते हैं, [न मुञ्चति] न छोड़ते हैं, और [न परिणमति] न परिणमन करते हैं। [सः] वे केवली भगवान् [सर्व] सब [निरवशेष ] कुछ भी वाकी नहीं, ऐसे ज्ञेय पदार्थोको [ समन्ततः] सर्वांग ही [पश्यति] देखते हैं, और [जानाति] जानते हैं । भावार्थ-जब यह आत्मा केवलज्ञा.
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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