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________________ __ ४१ - प्रवचनसारः - अथैवमर्था ज्ञाने वर्तन्त इति संभावयति जदि ते ण संति अट्ठा णाणे णाणं ण होदि सबगयं । सवगयं वा णाणं कहं ण णाणहिया अट्ठा ।। ३१ ॥ यदि ते न सन्त्यर्था ज्ञाने ज्ञानं न भवति सर्वगतम् । सर्वगतं वा ज्ञानं कथं न ज्ञानस्थिता अर्थाः ॥ ३१ ॥ यदि खलु निखिलात्मीयज्ञेयाकारसमर्पणद्वारेणावतीर्णाः सर्वेऽर्था न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्यते । अभ्युगम्येत वा सर्वगतम् । तर्हि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीर्णप्रतिविम्बस्थानीयस्वीयस्वीयसंवेद्याकारकारणानि, परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्याकारकारणानीति कथं ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते ॥ ३१ ॥ नास्तीति ॥ ३० ॥ अथ पूर्वसूत्रेण भणितं ज्ञानमर्थेषु वर्तते व्यवहारेणात्र पुनरर्था ज्ञाने वर्तन्त इत्युपदिशन्ति-जइ यदि चेत् ते अट्ठा ण संति ते पदार्थाः स्वकीयपरिच्छित्त्याकारसमर्पणद्वारेणादर्शे बिम्बवन्न सन्ति यदि चेत् । क । णाणे केवलज्ञाने णाणं ण होदि सबगयं तदा ज्ञानं सर्वगतं न भवति । सधगयं वा णाणं व्यवहारेण सर्वगतं ज्ञानं सम्मतं चेद्भवतां कहं ण णाणहिया अट्ठा तर्हि व्यवहारनयेन खकीयज्ञेयाकारपरिच्छित्तिसमर्पणद्वारेण ज्ञानस्थिता अर्थाः कथं न भवन्ति किंतु भवन्त्येव । अत्रायमभिप्रायः-यत एव व्यवहारेण ज्ञेयपरिच्छित्याकारग्रहणद्वारेण ज्ञानं सर्वगतं भण्यते, तस्मादेव ज्ञेयपरिच्छित्त्याकारसमर्पणकर देता है । इस क्रियामें यद्यपि निश्चयसे नीलमणि आपमें ही है, परन्तु प्रकाशकी विचित्रताके कारण व्यवहारनयसे उसको सब दूधसें व्याप्त कहते हैं। ठीक ऐसी ही ज्ञान और ज्ञेयों (पदार्थों ) की दशा (हालत) है, अर्थात् निश्चयनयसे ज्ञान आत्मामें ही है, परन्तु व्यवहारनयसे ज्ञेयमें भी कहते हैं। जैसे दर्पणमें घटपटादि पदार्थ प्रतिविम्बित होते हैं, और दर्पण अपनी स्वच्छतारूप शक्तिसे उन पदार्थों के आकार होजाता है, उसी प्रकार ज्ञानमें पदार्थ झलकते हैं, और अपनी स्वच्छतारूप ज्ञायकशक्तिसे वह ज्ञेयाकार होजाता है, अतएव व्यवहारसे ज्ञान पदार्थो में है, ऐसा कहते हैं ॥ ३० ॥ आगे जैसे ज्ञेयमें ज्ञान है, वैसे ही व्यवहारसे ज्ञानमें ज्ञेय (पदार्थ ) है, ऐसा कहते हैं;-[यदि] जो [ते अर्थाः] वे ज्ञेयपदार्थ [ ज्ञाने] केवलज्ञानमें [न सन्ति ] नहीं होवें, [तदा] तो [ सर्वगतं ज्ञान] सब पदार्थों में प्राप्त होनेवाला ज्ञान अर्थात् केवल. ज्ञान ही [न भवति] नहीं होवे, और [वा] जो [ सर्वगतं ज्ञानं] केवलज्ञान है, ऐसा मानो, तो [अर्थाः] पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं, (मौजूद हैं) ऐसा [कथं न ] क्यों न होवे ? अवश्य ही होवे । भावार्थ-यदि ज्ञानमें सव ज्ञेयोंके आकार 'दर्पणमें प्रतिविम्बकी तरह नहीं प्रतिभासें, तो ज्ञान सर्वगत ही नहीं ठहरे, प्र०.६
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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