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________________ २५ . १९.] -प्रवचनसारःच विनाशः । पीततादिपर्यायेण तूभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयतः ध्रुवत्वम् । एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्रौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । अतः शुद्धात्मनोऽप्युत्पादादित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यं भावि ॥ १८॥ अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियैर्विना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदस्यति पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अधिकतेजो। जादो अणिदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ॥१९॥ वति तथैव केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति । अथवा ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति । षट्स्थानगतागुरुलघुकगुणवृद्धिहान्यपेक्षया वा भङ्गत्रयमवबोद्धव्यमिति सूत्रतात्पर्यम् ॥ १८ ॥ एवं सिद्धजीवे द्रव्यार्थिकनपर्यायसे ध्रुवपना सब पदार्थो में है । जब सब पदार्थोंमें तीनों अवस्था है, तब आत्मामें भी अवश्य होना सम्भव है। जैसे सोना कुंडल पर्यायसे उत्पन्न होता है, पहली कंकण (कड़ा) पर्यायसे विनाशको पाता है, और पीत, गुरु, तथा स्निग्ध (चिकने) आदिक गुणोंसे ध्रुव है, इसी प्रकार यह जीव भी संसारअवस्थामें देव आदि पर्यायकर उत्पन्न होता है, मनुष्य आदिक पर्यायसे विनाश पाता है, और जीवपनेसे स्थिर है। मोक्ष अवस्थामें भी शुद्धपनेसे उत्पन्न होता है, अशुद्ध पर्यायसे विनाशको प्राप्त होता है, और द्रव्यपनेसे ध्रुव है। अथवा आत्मा सब पदार्थोको जानता है, ज्ञान है, वह ज्ञेय (पंदार्थ) के आकार होता है, इसलिये सब पदार्थ जैसे जैसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते हैं, वैसे वैसे ज्ञान भी होता है, इस ज्ञानकी आपेक्षा भी आत्माके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य जान लेना, तथा पटूगुणी हानि वृद्धिकी अपेक्षा भी उत्पाद आदिक तीन आत्मामें हैं। इसी प्रकार और बाकी द्रव्योंमें उत्पाद आदि सिद्ध कर लेना। यहाँपर मिमीने प्रश्न किया, कि द्रव्यका अस्तित्व (मौजूद होना) उत्पाद वगैरः तीनसे क्यों ध्रुव ही से कहना चाहिये, क्योंकि जो ध्रुव (स्थिर) होगा, वह सदा मौजूद जसका समाधान इस तरह है जो पदार्थ ध्रुव ही होता, तब मट्टी सोना '; तो ... [ अर्थ अपने सादा आकारसे ही रहते, घड़ा, कुंडल, दही वगैरः भेद जोक्ष ऐसा देखनेमें नहीं आता । भेद तो अवश्य देखने में आता है, ' जानाजान स्थाकर उपजता भी है, और नाश भी पाता है, इसी लिये द्रव्यका - हा '. कार से है। अगर ऐसा न माना जावे, तो संसारका ही लोप होजावे, मूढबुद्धि मर्याद हुई, कि पर्यायसे उत्पाद तथा व्यय सिद्ध होते हैं, और द्रव्य... भवाति-] नहीं लिये है, इन तीनोंसे ही द्रव्यका अस्तित्व (मौजूदगी) है ॥ १८॥ .... "नते. [तस्य प्रदेशो यह आत्मा शुद्धोपयोगके प्रभावसे स्वयंभू तो हुआ, परंतु इंद्रि
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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