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________________ ८१७ आभ्यंतर परिणाम अवलोकन-संस्मरणपोथी १ यथा हेतु . जे चित्तनो, सत्य धर्मनो उद्धार रे : थशे अवश्य आ देहथी, एम थयो निरधार रे॥ धन्य० ॥ आवी अपूर्व वृत्ति अहो, थशे अप्रमत्त योग रे; केवळ लगभग भूमिका, स्पर्शीने देह वियोग रे॥धन्य०॥ अवश्य कर्मनो भोग छ, भोगववो . अवशेष , रे; तेथी देह एक ज धारीने,.. जाशं स्वरूप स्वदेश रे॥ धन्य० ॥ ३३ . संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ६७] 'कम्मदव्वेहि सम्म, संजोगो होई जो उ जीवस्स। सो बंधो नायव्वो, तस्स विओगो भवे 'मुक्खो॥ ३४ . . . . . . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ७३] श्री जिनेंद्रने निम्नलिखित सम्यग्दर्शनस्वरूप जिन छः पदोंका उपदेश दिया है, उनका आत्मार्थी जोवको अतिशय विचार करना योग्य है। आत्मा है यह अस्तिपद । क्योंकि प्रमाणसे उसकी सिद्धि है। '.. आत्मा नित्य है यह नित्यपद । आत्माका जो स्वरूप है उसका किसी भी प्रकारसे उत्पन्न होना संभव नहीं है, तथा उसका विनाश भी संभव नहीं है। आत्मा कर्मका कर्ता है, यह कपिद । आत्मा कर्मका भोक्ता है। . [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ७४] उस आत्माको मुक्ति हो सकती है। जिनसे मोक्ष हो सके ऐसे.उपाय प्रसिद्ध हैं। हमारे हृदयके उद्देशके अनुसार सत्य धर्मका उद्धार इस देहके द्वारा अवश्य होगा ऐसा निश्चय हआ है। हमारी ऐसी अपूर्ववृत्ति चलती है कि हमें इस देहमें अप्रमत्त योगकी प्राप्ति होगी और केवलज्ञानको लगभगकी भूमिकाको स्पर्श करके इस देहका वियोग होगा। (दशा तो इतनी ऊंची है, परन्तु) अभी हमें फर्मका भोगना अवश्य अवशेष रहा है, इसलिये एक वह पारण फर कमसे मुक्त होकर स्वघामरूप मोक्षनगरीमें पहुँच जायेंगे। १. अर्थके लिये देखें व्याख्यानसार २, आंक ३० ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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