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________________ ८१४ श्रीमद् राजचन्द्र स्मरण-पोथी ?, पृष्ठ १५] - ज्ञानीपुरुषोंको समय समयमें अनंत संयमपरिणाग वर्धमान होते है ऐसा जो सर्वज्ञने कहा है वह सत्य है। . वह संयम, विचारकी तीक्ष्ण परिणतिले तथा ब्रह्मरम के प्रति स्थिरतासे उत्पन्न होता है। श्री तीर्थकर आत्माको संकोच-विकासका भाजन योगदशामें मानते हैं, यह सिद्धांत विशेषतः विचारणीय है। [संस्मरण-गोगी ?, पृष्ठ ५६] २५ ध्यान ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान व्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान-ध्यान गंस्मरण-पोपी १, पाठ ५७] २६ चिधातुमय, परमशांत, अडिग एकाग्र, एकस्वभावमय असंख्यात प्रदेशात्मक पुरुषाकार चिदानंदघन उसका ध्यान करें। ज्ञा. व. ढ० व. मो० अं --का आत्यंतिक अभाव । प्रदेश संबंधको प्राप्त हुए पूर्वनिष्पन्न, · सत्ताप्राप्त, . उदयप्राप्त, उदीरणाप्राप्त ... .. .. .. चार ऐसे .'' ...... ....
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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