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________________ ८१२ :: 2-02 20 श्रीमद राजचन्द्र व्यवहारसे देव जिन, निहचेसें है आप | एहि बचनसें समजले, जिनप्रवचनकी छाप ॥ एहि नहीं है कल्पना, एही नहीं विभंग । ...जागेंगे. आतमा, तब लागेंगे रंग ॥ जब १५ अनुभव पृष्ठ ३७] .१६ [संस्मरण: पोथी १, पृष्ठ ३९] यह त्यागी भी नहीं है, अत्यागी भी नहीं हैं । यह रागी भी नहीं हैं, वीतरागी भी नहीं है । अपना क्रम निश्चल करें। उसके चारों ओर निवृत्त भूमिका रखें । f यह दर्शन होता है वह क्यों वृथा जाता है ? इसका विचार पुनः पुन करते हुए मूर्च्छा आती है । सन्त जनोंने अपना क्रम नहीं छोड़ा है । जिन्होंने छोड़ा है वे परम असमाधिको प्राप्त हुए हैं । संतपना अति अति दुर्लभ है । आनेके बाद संत मिलने दुर्लभ है । सन्तपनेके अभिलाषी अनेक हैं । परंतु संतपना दुर्लभ सो दुर्लभ ही है !. [संस्मरण-पोथी १७. प्रकाशभुवन अवश्य वह सत्य है । ऐसी ही स्थिति है । आप इस ओर मुड़ें उन्होंने रूपकसे कहा है । भिन्न भिन्न प्रकार से उससे बोध हुआ है, और होता हैं; परन्तु वह विभंगरूप है । (संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४३] यह समझकर अब योग्य मार्ग ग्रहण करें । कारण न खोजें, निषेध न करें, कल्पना न करें। ऐसा ही है ।, यह पुरुष यथार्थवक्ता था । अयथार्थं कहनेका उन्हें कोई निमित्त न था । यह वोध सम्यक् है । तथापि बहुत ही सूक्ष्म और मोह दूर होनेपर ग्राह्य हो सकता है । सम्यक् बोध भी पूर्ण स्थिति में नहीं रहा है । तो भी जो है वह योग्य है । १८. [संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४६] बड़ा आश्चर्य है कि निर्विकार मनवाले मुमुक्षु जिसके चरणोंकी भक्ति, सेवा चाहते हैं वैसे पुरुषको 1. एक मृगतृष्णाके पानी जैसी, 1. उ [ संस्मरण-पोथी १, पृष्ठ ४७ ] वह दशा- किससे आवृत हुई ? और वह दशा वर्धमान क्यों न हुई ?.. लोकप्रसंगसे, मानेच्छासे, अजागृति सें, स्त्री आदि परिषहोंको न जीतनेसे । - .. जिस क्रिया में जीवको रंग लगता है, उसकी वहीं स्थिति होती है, ऐसा जो जिनेन्द्रका अभिप्राय है वह सत्य है । 'व्यवहारनयसे जिनेश्वर 'देव है, और निश्चयनयसे तो अपना आत्मा ही देव है । इस वचनसे जिनेश्वर के प्रवचनके प्रभाव महत्त्वको जीव समझ ले । } यह कथन मात्र कल्पना अर्थात् असत्य नहीं है, और यह विभंग-मिथ्याज्ञान भी नहीं है, अपितु नग्न सत्य है । जब आत्मा जागृत होगा अर्थात् अपने स्वरूपको पाने के लिये पुरुषार्थयुक्त होगा, तभी परमपदके, रंग में रंगेगा !....
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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