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________________ व्याख्यानसार-२ ७८९ सारभूत अर्थ :-'मोक्षमार्गस्य नेतारं' (मोक्षमार्गमें ले जानेवाला नेता)—यह कहनेसे मोक्षका 'अस्तित्व', 'मार्ग', और 'ले जानेवाला', ये तीन बातें स्वीकृत की हैं । यदि मोक्ष है तो उसका मार्ग भी होना चाहिये और यदि मार्ग है तो उसका द्रष्टा भी होना चाहिये, और जो द्रष्टा होता है वही मार्गमें ले जा सकता है । मार्गमें ले जानेका काम निराकार नहीं कर सकता, परन्तु साकार कर सकता है, अर्थात् मोक्षमार्गका उपदेश साकार उपदेष्टा अर्थात् जिसने देहस्थितिसे मोक्षमार्गका अनुभव किया है वही कर सकता है । 'भेत्तारं कर्मभूभृताम्-(कर्मरूप पर्वतोंका भेदन करनेवाला) अर्थात् कर्मरूपी पर्वतोंको तोड़नेसे मोक्ष हो सकता है। इसलिये जिसने देहस्थितिसे कर्मरूपो पर्वत तोड़े हैं वह साकार उपदेष्टा है। वैसा कौन है ? वर्तमान देहमें जो जीवन्मुक्त है वह। जो कर्मरूपी पर्वत तोड़कर मुक्त हुआ है, उसके लिये फिर कर्मका अस्तित्व नहीं रहता । इसलिये जैसा कि बहुतसे मानते हैं कि मुक्त होनेके बाद जो देह धारण करता है वह जोवन्मुक्त है, सो हमें ऐसा जीवन्मुक्त नहीं चाहिये । 'ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां'-(विश्वके तत्त्वोंको जाननेवाला) यों कहनेसे यह बताया कि आप्त ऐसा होना चाहिये कि जो समस्त विश्वका ज्ञाता हो । 'वंदे तद्गुणलब्धये-(उसके गुणोंकी प्राप्तिके लिये उसे वंदन करता हूँ), अर्थात् जो इन गुणोंसे युक्त पुरुष हो वही आप्त है और वही वंदनीय है। :: ३. मोक्षपद सभी चैतन्योंके लिये सामान्य होना चाहिये, एक जीवाश्रयी नहीं; अर्थात् यह चैतन्यका सामान्य धर्म है। एक जीवको हो और दूसरे जीवको न हो, ऐसा नहीं हो सकता। . . .... ४. 'भगवती आराधना' पर श्वेताम्बर आचार्योंने जो टीका की है वह भी उसी नामसे प्रसिद्ध है। :: : ५. करणानुयोग या द्रव्यानुयोगमें दिगम्बर और श्वेताम्वरके बीचमें अन्तर नहीं है। मात्र बाह्य व्यवहारमें अन्तर है। :: .........: ........ ६. करणानुयोगमें गणितरूपसे सिद्धांत एकत्रित किये हैं। उनमें अन्तर होना सम्भव नहीं है। ७. कर्मग्रन्थ मुख्यतः करणानुयोगके अन्तर्गत है। ८. 'परमात्मप्रकाश' दिगम्बर आचार्यका बनाया हुआ है । उसपर टीका हुई है। - - ९. निराकुलता सुख हैं। संकल्प दुःख है। .. . १०. कायक्लेश तप करते हुए भी महामुनिमें निराकुलता अर्थात् स्वस्थता देखनेमें आती है। तात्पर्य कि जिसे तप आदिकी आवश्यकता है, और इसलिये जो तप आदि कायक्लेश करता है, फिर भी वह स्वास्थ्यदशाका अनुभव करता है; तो फिर जिन्हें कायक्लेश करना नहीं रहा ऐसे सिद्ध भगवानको निराकूलता क्यों नहीं हो सकती?... ... ११. देहकी अपेक्षा चैतन्य बिलकुल स्पष्ट है । जैसे देहगुणधर्म देखनेमें आते हैं वैसे आत्मगुणधर्म देखनेमें आयें तो देहका राग नष्ट हो जाता है । आत्मवृत्ति विशुद्ध हो जानेसे दूसरे द्रव्यके संयोगसे आत्मा देहरूपसे, विभावसे परिणमित हुआ दिखाई देता है। १२. चैतन्यका अत्यन्त स्थिर होना 'मुक्ति' है। १३. मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इनके अभावमें अनुक्रमसे योग स्थिर होता है। - १४. पूर्वके अभ्यासके कारण जो झोंका आ जाता है वह 'प्रमाद' है। १५. योगको आकर्षण करनेवाला न होनेसे वह स्वयं ही स्थिर हो जाता है। १६. राग और द्वेष आकर्षण हैं।। १७. संक्षेपमें ज्ञानीका यों कहना है कि पुद्गलसे चैतन्यका वियोग कराना है; अर्थात् रागद्वेषसे आकर्षण दूर करना है। १८. जहाँ तक अप्रमत्त हुआ जाये वहाँ तक जागृत ही रहना है।।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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