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________________ ७८८ श्रीमद राजचन्द्र आत्माको अलग कर सकते हैं । वह भेदविज्ञान होनेके लिये महात्माओंने सब शास्त्र रचे हैं । जैसे तेजाबसे. सोना और रांगा अलग हो जाते हैं, वैसे ज्ञानीके भेदविज्ञानके जापरूप तेजाबसे स्वाभाविक आत्मद्रव्य :अगुरुलघु स्वभाववाला होकर प्रयोगी द्रव्यसे पृथक् होकर स्वधर्म में आ जाता है । : .. १९. दूसरे उदयमें आये हुए कर्मोंका आत्मा चाहे जिस तरहसे समाधान कर सकता है, परन्तु वेदनीयकर्म में वैसा नहीं हो सकता; और उसका आत्मप्रदेशोंसे वेदन करना ही चाहिये; और उसका वेदन करते हुए कठिनाईका पूर्ण अनुभव होता है । वहाँ यदि भेदज्ञान संपूर्ण प्रगट न हुआ हो तो आत्मा देहाकारसे परिणमन करता है, अर्थात् देहको अपनी मानकर वेदन करता है, जिससे आत्माकी शांतिका भंग होता है। ऐसे प्रसंगमें जिन्हें संपूर्ण भेदज्ञान हुआ है ऐसे ज्ञानियोंको असातावेदनीयका वेदन करते हुए निर्जरा होती है, और वहाँ ज्ञानोकी कसौटी होती है । अर्थात् अन्य दर्शनवाले वहाँ उस तरह नहीं टिक सकते, और ज्ञानो इस तरह मानकर टिक सकते हैं । २०. पुद्गलद्रव्यकी सँभाल रखी जाये तो भी वह कभी न कभी नष्ट हो जानेवाला है; और जो अपना नहीं है, वह अपना होनेवाला नहीं है; इसलिये लाचार होकर दीन बनना किस कामका ? २१. 'जोगा पयडिपदेसा' = योगसे प्रकृति और प्रदेश बंध होता है । २२. स्थिति तथा अनुभाग कषायसे बँधते हैं । २३. आठविध, सातविध, छविध और एकविध इस प्रकार बंध बँधा जाता है ! १२ मोरबी, आषाढ़ सुदी १५, गुरु, - १९५६ १. ज्ञानदर्शनका फल यथाख्यातचारित्र, और उसका फल निर्वाण; उसका फल अन्याबाध सुख है । १३ मोरबी, आषाढ वदी १, शुक्र, १९५६ १. 'देवागमस्तोत्र' महात्मा समंतभद्राचार्यंने ( जिसके नामका शब्दार्थ यह होता है कि 'जिसे कल्याण मान्य है' ) बनाया है, और उसपर दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्योंने टीका लिखी है । ये महात्मा दिगम्बराचार्य थे, फिर भी उनका बनाया हुआ उक्त स्तोत्र श्वेताम्बर आचार्योंको भी मान्य है । उस स्तोत्रमें प्रथम श्लोक निम्नलिखित है " 'देवागमन भोयानचामरादिविभूतयः मायाविष्वपि दृश्यंते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥' - इस श्लोक का भावार्थ यह है कि देवागम (देवताओंका आना होता हो); आकाशगमन (आकाश में गमन हो सकता हो), चामरादि विभूति (चामर आदि विभूति हो - समवसरण होता हो इत्यादि) ये सब... तो मायावियोंमें भी देखे जाते हैं (मायासे अर्थात युक्तिसे भी हो सकते है), इसलिये उतनेसे ही आप हमारे महत्तम नहीं हैं । (उतने मात्रसे कुछ तीर्थंकर अथवा जिनेंद्रदेवका अस्तित्व माना नहीं जा सकता । ऐसी विभूति आदिसे हमें कुछ मतलब नहीं है । हमने तो उसका त्याग किया है ।) इन आचार्यने न जाने गुफामेंसे निकलते हुए तीर्थंकरको कलाई पकड़कर उपर्युक्त निरपेक्षतासे वचन कहे हों, ऐसा आशय यहाँ बताया गया हैं । २. आप्त अथवा परमेश्वरके लक्षण कैसे होने चाहिये, उसके संबंधमें ‘तत्त्वार्थसूत्र' की टीका में (सर्वार्थसिद्धि में) पहली गाथा निम्नलिखित हैं 'मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम् । · ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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