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________________ व्याख्यानसार-१ . १५३. जोवको अपनों चतुराई और इच्छानुसार चलना अच्छा लगता है, परन्तु यह जीवका बुरा करनेवाली वस्तु है । इस दोषको दूर करनेके लिये ज्ञानीका यह उपदेश है कि पहले तो किसीको उपदेश नहीं देना है परन्तु पहले स्वयं उपदेश लेना है। जिसमें रागद्वेष न हो उसका संग हुए विना सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सकता । सम्यक्त्व आनेसे (प्राप्त होनेसे) जीव. बदलता है, (जीवकी दशा बदलती है); अर्थात् प्रतिकूल. हो तो अनुकूल हो जाती है । जिनेन्द्रकी प्रतिमाका (शांतिके लिये) दर्शन करनेसे सातवें गुणस्थानकमें स्थित ज्ञानीकी जो शांतदशा है उसकी प्रतीति होती है ! :. : . . १५४. जैनमार्गमें आजकल अनेक गच्छ प्रचलित हैं, जैसे कि तपगच्छ, अंचलगच्छ, लुंकागच्छ, खरतरगच्छ इत्यादि । यह प्रत्येक अपनेसे अन्य पक्षवालेको मिथ्यात्वी मानता है । इसी तरह दूसरा विभाग छ कोटि, आठ कोटि इत्यादिका है। यह प्रत्येक अपनेसे अन्य कोटिवालेको मिथ्यात्वी मानता है । वस्तुतः नौ कोटि चाहिये। उनमेंसे जितनी कम उतना कम; और उसकी अपेक्षा भी आगे जायें तो समझमें आता है कि अंतमें नौ कोटि भी छोड़े बिना रास्ता नहीं है। . . ... ... ... ... १५५. तीर्थंकर आदिने जिस मार्गसे मोक्ष प्राप्त किया वह मार्ग तुच्छ नहीं है। जैनरूढिका अंश भी छोड़ना अत्यंत कठिन लगता है, तो फिर महान तथा महाभारत जैसे मोक्षमार्गको किस तरह ग्रहण किया जा सकेगा? यह विचारणीय है। १५६. मिथ्यात्व प्रकृतिका क्षय किये बिना सम्यक्त्व नहीं आता। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसकी दशा अद्भुत होती है। वहाँसे पाँचवें, छठे, सातवें और आठवेंमें जाकर दो घड़ीमें मोक्ष हो सकता है। एक सम्यक्त्व प्राप्तकर लेनेसे कैसा अद्भुत कार्य हो जाता है ! इससे सम्यक्त्वकी चमत्कृति अथवा उसका माहात्म्य किसी अंशमें समझा जा सकता है। :: १५७. दुर्धर पुरुषार्थसे प्राप्त होने योग्य मोक्षमार्ग अनायास प्राप्त नहीं होता। आत्मज्ञान अथवा मोक्षमार्ग किसीके शापसे अप्राप्त नहीं होता, या किसीके आशीर्वादसे प्राप्त नहीं होता । पुरुषार्थके अनुसार होता है, इसलिये पुरुषार्थकी जरूरत है। .... १५८: सूत्र, सिद्धांत, शास्त्र सत्पुरुषके उपदेशके बिना फल नहीं देते। जो भिन्नता है वह व्यवहार मार्गमें है। मोक्षमार्गमें तो कोई भेद नहीं है, एक ही है। उसे प्राप्त करनेमें जो शिथिलता है उसका निषेध किया गया है । इसमें शूरवीरता ग्रहण करने योग्य है । जीवको अमूच्छित करना ही जरूरी है। ... १५९. विचारवान पुरुषको व्यवहारके भेदसे नहीं घबराना चाहिये। ... १६०. ऊपरकी भूमिकावाला नीचेको भूमिकावालेके बरावर नहीं है, परन्तु नीचेकी भूमिकावालेसे ठीक है। स्वयं जिस व्यवहारमें हो उससे दूसरेका ऊँचा व्यवहार देखनेमें आये, तो उस ऊंचे व्यवहारका निषेध न करे, क्योंकि मोक्षमार्गमें कुछ भी अन्तर नहीं है। तीनों कालमें चाहे जिस क्षेत्रमें जो एक ही सरीखा रहे वही मोक्षमार्ग है। . . . . .. .. .... . ... . . १६१. अल्पसे अल्प निवृत्ति करनेमें भी जीवको कैंपकंपी होती है तो फिर वैसी अनन्त प्रवत्तियोसे जो मिथ्यात्व होता है, उसकी निवृत्ति करना यह कितना दुर्धर हो जाना चाहिये ? मिथ्यात्वको निवृत्ति हो 'सम्यक्त्व' है।.. . ... १६२. जीवाजीवकी विचाररूपसे प्रतीति न की गयी हो और कथन माम ही जीवाजीव हे, यों कहे
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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