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________________ ७६६ श्रीमद् राजचन्द्र . १४२. यह कहा जाता है कि तेरहवाँ गुणस्थानक इस कालमें और इस क्षेत्रसे प्राप्त नहीं होता; परन्तु ऐसा कहनेवाले पहले गुणस्थानकमेंसे भी नहीं निकलते । यदि वे पहले से निकलकर चौथे तक आये, और वहाँ पुरुषार्थ करके सातवें अप्रमत्त गुणस्थानक तक पहुँच जायें, तो भी यह एक बड़ोसे बड़ी बात है। सातवें तक पहुंचे बिना उसके बादकी दशाकी सुप्रतीति हो सकना मुश्किल है। . १४३. आत्मामें जो प्रमादरहित जागृतदशा है वही सातवाँ गुणस्थानक है । वहाँ तक पहुँच जानेसे उसमें सम्यक्त्व समा जाता है। जीव चौथे गुणस्थानकमें आकर वहाँसे पाँचवें 'देशविरति', छठे 'सर्वविरति' और सातवें 'प्रमादरहित विरति' में पहुँचता है। वहाँ पहुँचनेसे आगेकी दशाका अंशतः अनुभव अथवा सुप्रतीति होती है । चौथे गुणस्थानकवाला जीव सातवें गुणस्थानकमें पहुँचनेवालेकी दशाका यदि विचार करे तो किसी अंशसे प्रतीति हो सकती है। परन्तु पहले गुणस्थानकवाला जीव उसका विचार करे तो वह किस तरह प्रतीतिमें आ सकता है ? क्योंकि उसे जाननेका साधन जो आवरणरहित होना है वह पहले गुणस्थानकवालेके पास नहीं होता। . १४४. सम्यक्त्वप्राप्त जीवकी दशाका स्वरूप ही भिन्न होता है। पहले गुणस्थानकवाले जीवकी दशाकी जो स्थिति अथवा भाव है उसकी अपेक्षा चौथे गुणस्थानकको प्राप्त करनेवालेकी दशाकी स्थिति अथवा भाव भिन्न देखनेमें आते हैं अर्थात् भिन्न हो दशाका वर्तन देखनेमें आता है। .. ....... १४५. पहलेको शिथिल करें तो चौथेमें आये यह कथन मात्र है। चौथेमें आनेके लिये जो वर्तन है वह विषय विचारणीय है। .१४६. पहले, चौथे, पाँचवें, छटे और सातवें गुणस्थानककी जो बात कही गयी है वह कुछ कथन मात्र अथवा श्रवण मात्र ही है, यह बात नहीं है; परन्तु समझकर वारंवार विचारणीय है। .. __. १४७. हो सके उतना पुरुषार्थ करके आगे बढ़नेकी ज़रूरत है। १४८. न प्राप्त हो सके ऐसे धैर्य, संहनन, आयुकी पूर्णता इत्यादिके अभावसे कदाचित् सातवें 'गुणस्थानकसे आगेका विचार अनुभवमें नहीं आ सकता, परन्तु सुप्रतीत हो सकता है । ; : ..... १४९. सिंहके दृष्टांतकी तरह :--सिंहको लोहेके मजबूत पिंजरेमें बन्द किया गया हो तो वह अंदर रहा हुआ अपनेको सिंह समझता है, पिंजरेमें बन्द किया हुआ मानता है; और पिंजरेसे बाहरकी भूमि भी देखता है; मात्र लोहेकी मजबूत छड़ोंकी आड़के कारण बाहर नहीं निकल सकता । इसी तरह सातवें गुणस्थानकसे आगेका विचार सुप्रतीत हो सकता है । ... . १५०. इस प्रकार होनेपर भी जीव मतभेद आदि कारणोंसे अवरुद्ध होकर आगे नहीं बढ़ सकता। १५१. मतभेद अथवा रूढि आदि तुच्छ बातें हैं, अर्थात् उसमें मोक्ष नहीं है । इसलिये वस्तुतः 'सत्यकी प्रतीति करनेकी जरूरत है। १५२. शुभाशुभ और शुद्धाशुद्ध परिणामपर सारा आधार है। छोटी छोटी बातोंमें भी दोष माना जायें तो उस स्थितिमें मोक्ष नहीं होता। लोकरूढि अथवा. लोकव्यवहार में पड़ा हुआ जोव मोक्षतत्त्वका . रहस्य नहीं जान सकता, उसका कारण यह है कि उसके मनमें रूढि अथवा लोकसंज्ञाको माहात्म्य है। इसलिये बादर क्रियाका निषेध नहीं किया जाता । जो कुछ भी न करता हुआ एकदम अनर्थ करता है उसकी अपेक्षा बादरक्रिया उपयोगी है। तो भी इसका आशय यह भी नहीं है. कि बादरक्रियासे आगे न बढ़े।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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