SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 885
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५२ श्रीमद् राजचन्द्र होता है। जिस तरह, जिस आकाशप्रदेशमें अथवा तो उसके पास विभावी आत्मा स्थित है उस आकाशप्रदेशके उतने भागको लेकर जो अछेद्य अभेद्य अनुभव होता है वह अनुभवगम्यमें समाता है; और उसके अतिरिक्त शेष आकाश जिसे केवलज्ञानीने स्वयं भी अनंत (जिसका अंत नहीं) कहा है, उस अनंत आकाशका भी तदनुसार गुण होना चाहिये ऐसा बुद्धिबलसे निर्णीत किया हुआ होना चाहिये। (इ) आत्मज्ञान उत्पन्न हुआ अथवा तो आत्मज्ञान हुआ, यह बात अनुभवगम्य है । उस आत्मज्ञानके उत्पन्न होनेसे आत्मानुभव होनेके उपरांत क्या क्या होना चाहिये ऐसा जो कहां गया है वह बुद्धिबलसे कहा है, ऐसा माना जा सकता है। . (ई) इंद्रियके संयोगमें जो कुछ भी देखना जानना होता है वह यद्यपि अनुभवगम्यमें समाता जरूर है; परन्तु यहाँ तो अनुभवगम्य आत्मतत्त्वके विषयमें कहना है, जिसमें इंद्रियोंकी सहायता अथवा तो संबंधकी आवश्यकता नहीं है, उसके सिवायकी बात है। केवलज्ञानी सहज देख-जान रहे हैं; अर्थात् लोकके सर्व पदार्थोंका उन्होंने अनुभव किया है यह जो कहा जाता है उसमें उपयोगका संबंध रहता है; क्योंकि केवलज्ञानीके तेरहवाँ गुणस्थानक और चौदहवाँ गुणस्थानक ऐसे दो विभाग किये गये हैं, उसमें तेरहवें गुणस्थानकवाले केवलज्ञानीके योग है, यह स्पष्ट है; और जहाँ इस तरह है वहाँ उपयोगकी विशेषरूपसे आवश्यकता है, और जहाँ विशेषरूपसे जरूरत है वहाँ बुद्धिवल है, यह कहे बिना चल नहीं सकता; और जहाँ यह बात सिद्ध होती है वहाँ अनुभवके साथ बुद्धिबल भी सिद्ध होता है। (उ) इस प्रकार उपयोगके सिद्ध होनेसे आत्माको समीपवर्ती जड पदार्थका तो अनुभव होता है परन्तु दूरवर्ती पदार्थका योग न होनेसे उसका अनुभव होनेकी बात कहना कठिन है; और उसके साथ, दूरवर्ती पदार्थ अनुभवगम्य नहीं है, ऐसा कहनेसे तथाकथित केवलज्ञानके अर्थसे विरोध आता है। इसलिये वहाँ वुद्धिवलसे सर्व पदार्थका सर्वथा एवं सर्वदा ज्ञान होता है यह सिद्ध होता है। २५. एक कालमें कल्पित जो अनंत समय हैं, उसके कारण अनंत काल कहा जाता है। उसमेंसे, वर्तमान कालसे पहलेके जो समय व्यतीत हो गये हैं वे फिरसे आनेवाले नहीं हैं यह बात न्यायसंपन्न है । वे समय अनुभवगम्य किस तरह हो सकते हैं यह विचारणीय है। ... २६. अनुभवगम्य जो समय हुए हैं, उनका जो स्वरूप है वह, तथा उस स्वरूपके सिवाय उनका दूसरा स्वरूप नहीं होता, और इसी तरह अनादि-अनंत कालके दूसरे जो समय उनका भी वैसा हो स्वरूप है; ऐसा वुद्धिवलसे निर्णीत हुआ मालूम होता है । .. २७. इस कालमें ज्ञान क्षीण हुआ है, और ज्ञानके क्षीण हो जानेसे अनेक मतभेद हो गये हैं। जैसे ज्ञान कम वैसे मतभेद अधिक, और जैसे ज्ञान अधिक वैसे मतभेद कम । जैसे कि जहाँ पैसा घटता है वहाँ क्लेश बढ़ता है, और जहाँ पैसा बढ़ता है वहाँ क्लेश कम होता है। २८. ज्ञानके बिना सम्यक्त्वका विचार नहीं सूझता। जिसके मनमें यह है कि मतभेद उत्पन्न नहीं करना, वह जो जो पढ़ता है, या सुनता है वह वह उसके लिये फलित होता है। मतभेद आदिके कारणसे श्रुत-श्रवण आदि फलीभूत नहीं होते । २९. जैसे रास्तेमें चलते हुए किसीका मुंडासा काँटोंमें फंस गया और सफर अभी बाकी है, तो पहले यथासंभव काँटोंको दूर करना; परंतु काँटोंको दूर करना संभव न हो तो उसके लिये वहाँ रातभर रुक न जाना; परन्तु मुंडासेको छोड़कर चल देना । उसी तरह जिनमार्गका स्वरूप तथा उसका रहस्य क्या
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy