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________________ ७.२२ ? श्रीमद राजचन्द्र प्र० - कषाय क्या है Ix उ०—सत्पुरुष मिलनेपर, जीवको वे बताये कि तू जो विचार किये बिना करता जाता है उसमे कल्याण नही है, फिर भी उसे करने के लिये दुराग्रह रखना वह 'कषाय' है । उन्मार्गको मोक्षमार्ग माने और मोक्षमार्गको उन्मार्ग माने, वह 'मिथ्यात्वमोहनीय' है । . उन्मार्गसे मोक्ष नही होता, इसलिये मार्ग दूसरा होना चाहिये, ऐसा जो भाव वह 'मिश्रमोहनीय' है । 'आत्मा यह होगा ?" ऐसा ज्ञान होना 'सम्यक्त्व मोहनीय' है । 'आत्मा यह है', ऐसा निश्चयभाव 'सम्यक्त्व' है । je ज्ञानीके प्रति यथार्थ प्रतीति हो और रात-दिन उस अपूर्व योग की याद आती रहे तो सच्ची भक्ति प्राप्त होती है । नियमसे जीव कोमल होता है, दया आती है । मनके परिणाम यदि उपयोगसहित हो तो कर्म कम लगते है उपयोगरहित हो तो कर्म अधिक लगते है । अन्त करणको कोमल करनेके लिये, शुद्ध करनेके लिये व्रत आदि करनेका विधान किया है । स्वादबुद्धिको कम करनेके लिये नियम करे। कुलधर्मं जहाँ 'जहाँ देखते हैं वहाँ वहाँ आडे आता है ।" 1rili 21 ९ वडवा, भाद्रपद सुदी १३, शनि, १९५२ श्री वल्लभाचार्य कहते हैं कि श्रीकृष्ण गोपियोके साथ रहते थे, उसे जानकर भक्ति करें। योगी समझकर तो सारा जंगत भक्ति करता है परन्तु गृहस्थाश्रममे योगदशा है, उसे समझकर 'भक्ति करना 'वैराग्यका कारण है। गृहस्थाश्रममे सत्पुरुष रहते हैं उनका चित्र देखकर विशेष वैराग्यकी प्रतीति होती है। योगदशाका चित्र देखकर सारे जगतको वैराग्यकी प्रतीति होती है, परन्तु गृहस्थाश्रममे रहते हुए भी 'त्याग और वैराग्य ` योगदशा जैसे रहते हैं, यह कैसी अद्भुत दशा है। योगमे जो वैराग्य रहता है वैसा अखड वैराग्य सत्पुरुष · गृहस्थाश्रममे रखते हैं । उस अद्भुत वैराग्यको देखकर मुमुक्षुको वैराग्य, भक्ति होनेका निमित्त बनता है। लौकिकदृष्टिमे वैराग्य, भक्ति नही है | 1 17 पुरुषार्थं करना और सत्य रीतिसे वर्तन करना ध्यानमे ही नही आता । वह तो लोग भूल ही गये है । लोग जब वर्षा आती है तब पानी टकीमे भर रखते हैं, वैसे मुमुक्षुजीव इतना सारा उपदेश सुनकर जरा भी ग्रहण नही करते, यह एक आश्चर्यं है । उनका उपकार किस तरह हो ? सत्पुरुषकी वर्तमान स्थितिकी विशेष अद्भुतदशा है । सत्पुरुष के गृहस्थाश्रमकी सारी स्थिति प्रशस्त है । सभी योग पूजनीय है । एक एसी ज्ञानी दोष कम करनेके लिये अनुभवके वचन कहते है,' इसलिये वैसे वचनोका स्मरण करके यदि उन्हे समझा जाये, उनका श्रवण मनन हो तो सहजमे ही आत्मा उज्ज्वल होता है । वैसा करनेमे कुछ बहुत मेहनत नही है । वैसे वचनोका विचार न करे, तो कभी भी दोष कम नही होते । 1 सदाचारका सेवन करना चाहिये । ज्ञानीपुरुषोने दया, सत्य, अदत्तादान, ब्रह्मचर्य, परिग्रह-परिमाण आदि सदाचार कहे हैं । ज्ञानियोने, जिन सदाचारोका सेवन करना कहा है वह यथार्थ है, सेवन करने योग्य है। बिना साक्षी जीव व्रत, नियम न करे । 1 विषय - कषाय आदि दोष दूर हुए बिना सामान्य आशयवाले दया आदि भी नही आते, तो फिर गूठ आशयवाले दया आदि कहाँसे आयेगे ? विषय कषाय सहित मोक्षमे जाया नही जाता । अत करणकी शुद्धिके विना आत्मज्ञान नहीं होता । भक्ति सब दोषोका क्षय करनेवाली है, इसलिये वह सर्वोत्कृष्ट है । " जीव, विकल्पका व्यापार न करे । विचारवान, अविचार और अकार्य करते हुए क्षोभ पाता है । अकार्य करते हुए जो क्षोभ नही पाता वह अविचारवान है । अकार्य करते हुए पहले जितना त्रास रहता
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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