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________________ उपदेश छाया ७२१ आयुकर्म एक ही भवका बँधता है। अधिक भवकी आयु नही बँधती । यदि बँधती हो तो किसीको केवलज्ञान उत्पन्न न हो । Wedst 651 *1 f 1 ज्ञानीपुरुष समतासे कल्याणका जो स्वरूप बताते हैं वह उपकारके लिये बताते हैं । ज्ञानीपुरुष मार्गभूले भटके जीवको सीधा रास्ता बताते है । जो ज्ञानीके मार्गपर चलता है उसका कल्याण होता है । ज्ञानी वियोगके बाद बहुतसा काल बीत जाये तब अधकार हो जानेसे अज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । और ज्ञानीपुरुषोके वचन समझमे नही आते, जिससे लोगोको उलटा भासता है । समझमे न आने से लोग गच्छके भेद बना डालते है । गच्छके भेद ज्ञानियोने नही डाले । अज्ञानी मार्गका लोप करता है । जब ज्ञानी होते हैं तब मार्गका उद्योत करते हैं । अज्ञानी ज्ञानीका विरोध करते है ।, मार्गसन्मुख होना चाहिये, क्योकि विरोध करनेसे तो मार्गका भान हो नही होता । N बाल और अज्ञानी जीव छोटी-छोटी बातोमे भेद खड़ा कर देते हैं । तिलक और मुँहपत्ती इत्यादिके आग्रह कल्याण नही है । अज्ञानीको मतभेद करते हुए देर नही लगती । ज्ञानीपुरुष रूढ़िमार्गके बदले शुद्धमार्गका प्ररूपण करते हो तो भी जीवको भिन्न- भासता है,, और वह मानता है कि यह अपना धर्म नही है जीव कदाग्रहरहित होता है वह शुद्धमार्गको स्वीकार करता है ! जैसे व्यापार अनेक प्रकारके होते हैं परन्तु लाभ एक ही प्रकारका होता है । विचारवानोंका तो कल्याणका मार्ग एक ही होता है | अज्ञानमार्ग अनन्त प्रकार हैं । J " जैसे अपना लड़का कुबडा हो और दूसरेका लडका बहुत रूपवान हो, परन्तु राग अपने लडकेपर होता है, और वह अच्छा लगता है, उसी तरह जिस कुलधर्मको स्वयने माना है, वह चाहे जैसा हो तो भी सच्चा लगता है । वैष्णव, बौद्ध, श्वेताबर, ढूं दिया, दिगम्बर जैन आदि चाहे जो हो परन्तु जो कदाग्रहरहित होकर शुद्ध समतासे अपने आवरणोको घटायेगा उसीका कल्याण होगा | 7 सामायिक कायाके योगको रोकती है, - आत्माको निर्मल करनेके लिये कायाके योगको रोकें । रोकनेसे परिणाममे कल्याण होता है । कायाकी सामायिक करनेकी अपेक्षा आत्माको समायिक एक बार करे । ज्ञानीपुरुपके वचन सुन सुनकर गाँठ बाँधे तो आत्माकी सामायिक होगी। इस कालसे, आत्माकी सामायिक होती है । ' मोक्षका उपाय अनुभवगोचर है । जैसे अभ्यास करते-करते आगे वढते हैं वैसे ही मोक्षके लिये भी है । जब आत्मा कुछ भी क्रिया न करे तब अवध कहा जाता है। पुरुषार्थ करे तो कर्मसे मुक्त होता है ।" अनतकाल के कर्म हो, और यदि यथार्थ पुरुषार्थं करे तो कर्म यो नही कहते कि मै नही जाऊँगा । दो घडीमे अनन्त कर्मोंका नाश होता हे । आत्माकी पहचान हो तो कर्मका नाश होता है । प्र०—–सम्यक्त्वं किससे प्रगट होता है ? उ०- आत्माका यथार्थं लक्ष्य होनेसे । सम्यक्त्वके दो प्रकार हैं- (१) व्यवहार और (२) परमार्थं । सद्गुरुके वचनोका सुनना, उन वचनोका विचार करना, उनकी प्रतीति करना, यह 'व्यवहार-सम्यक्त्व' है । आत्माकी पहचान हो, यह 'परमार्थ सम्यक्त्व' है । अन्तकरणको शुद्धिके बिना वोध असर नही करता, इसलिये पहले अन्त करणमे कोमलता लाये, व्यवहार और निश्चय इत्यादिकी मिथ्या चर्चामे निराग्रही रहे, मध्यस्थभावसे रहें । आत्मा के स्वभावको जो आवरण है उसे ज्ञानो 'कर्म' कहते हैं । जब सात प्रकृतियो का क्षय हो तव सम्यक्त्व प्रगट होता है । अनंतानुवधी चार कपाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, समकितमोहनीय, इन सात प्रकृतियोका क्षय हो जाये तब सम्यक्त्व प्रगट होता है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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