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________________ उपदेश छाया ७१९ सन्यासीने कहा तब मायाने कहा कि 'मै सामने आ जाऊँगी।' सन्यासी फिर जंगलमे रहता, और 'मुझे ककड और रेत दोनो समान है,', यो कहकर रेतीपर सोया करता । फिर मायाको कहा कि 'तू कहाँ है ?' मायाने समझ लिया कि इसे बहुत गर्व चढा है, इसलिये कहा कि 'मेरे आनेकी क्या जरूरत है ? मेरा बडा पुत्र अहंकार तेरी सेवामे छोडा हुआ था।' . . . . . . . . . . . . . __ . माया इस तरह ठगती है। इसलिये ज्ञानी कहते है कि 'मैं सबसे न्यारा हूँ, सर्वथा त्यागी हुआ है, अवधूत हूँ, नग्न हूँ, तपश्चर्या करता हूँ। मेरी बात अगम्य है । मेरी दशा बहुत ही अच्छी है । माया मुझे वाधित नही करेगी, ऐसी मात्र कल्पनासे मायासे ठगे न जाना।' . जरा समता आती है कि अहकार आकर भुला देता है कि 'मै समतावाला हूँ', इसलिये उपयोगको जागृत रखे । मायाको खोज खोजकर ज्ञानीने सचमुच जीता है। भक्तिरूपी स्त्री है। उसे मायाके सामने रखा जाये, तो मायाको जीता-जा सकता है। भक्तिमे अहकार नहीं है, इसलिये मायाको जीतती है। आज्ञामे अहकार नहीं हैं। स्वच्छदमे अहकार है । जव तक रागद्वेप नही जाते तब तक तपश्चर्या करनेका फल ही क्या ? 'जनकविदेहीमे, विदेहिता नही हो सकती, यह केवल कल्पना है, ससारमे विदेहिता नही रहती', ऐसी चितन न करें। जिसका अपनापन दूर हो जाये उससे वैसे रहा जा सकता है । मेरा तो कुछ नही है। मेरी तो काया भी नहीं है, इसलिये मेरा कुछ नही है, ऐसा हो तो अहंकार मिटता है यह यथार्थ है । जनक विदेहीकी दशा उचित है। वसिष्ठजीने रामको उपदेश दिया, तब राम गुरुको राज्य अर्पण करने लगे, परन्तु गुरुने राज्य लिया ही नही.। परन्तु अज्ञान दूर करना है, ऐसा उपदेश देकर अपनापन मिटाया। जिसका अज्ञान गया उसका दुख चला गया। शिष्य और गुरु ऐसे होने चाहिये। .' ज्ञानी गृहस्थावासमे बाह्य उपदेश, व्रत देते है,या नही ? गृहस्थावासमे हो ऐसे परमज्ञानी मार्ग नही चलाते-मार्ग चलानेकी रीतसे मार्ग नही चलाते, स्वय अविरत रहकर व्रत नही दिलाते, परन्तु अज्ञानी ऐसा करता है। इससे राजमार्गका उल्लघन होता है। क्योकि, वैसा करनेसे, बहुतसे कारणोम विरोध आता है ऐसा है परन्तु इससे यह विचार न करे कि ज्ञानी निवृत्तिरूपसे -नही है, परन्तु विचार करें तो विरतिरूपसे ही हैं । इसलिये बहुत ही विचार करना है। सकाम भक्तिसे ज्ञान नही होता । निष्काम भक्तिसे ज्ञान होता है। ज्ञानीके उपदेशमे अद्भुतता है। वे अनिच्छा भावसे उपदेश देते है, स्पृहारहित होते है । उपदेश यह ज्ञानका माहात्म्य है; इसलिये माहात्म्य के कारण अनेक जीव सरलतासे प्रतिबद्ध होते हैं। . . . . . ___ अज्ञानीका सकाम उपदेश होता है, जो ससार फलका कारण है। वह रुचिकर, रागपोषक और ससारफल देनेवाला होनेसे लोगोको प्रिय लगता है, और इसलिये जगतमे अज्ञानीका मार्ग अधिक चलता है । ज्ञानीके मिथ्या भावका क्षय हुआ है, अहभाव मिट गया है, इसलिये अमूल्य वचन निकलते है । बालजोवोको ज्ञानी-अज्ञानीको पहचान नहीं होती। विचार करे, 'मै वणिक हूँ', इत्यादि आत्मामे रोम-रोममे व्याप्त है, उसे दूर करना है। आचार्यजीने जीवोका स्वभाव प्रमादी जानकर दो दो तीन तीन दिनोके अन्तरसे नियम पालनेको आज्ञा की है। सवत्सरीका दिन कुछ साठ घडीसे ज्यादा-कम नहीं होता, तिथिमे कुछ अन्तर नहीं है। अपनी कल्पनासे कुछ अन्तर नहीं हो जाता । क्वचित् बीमारी यादि कारणसे पचमीका दिन न पाला गया और छठ पाले और आत्मामे कोमलता हो तो वह सफल होता है। अभी वहुत वर्षोंसे पर्यपणमे तिथियोकी भ्राति चलती है। दूसरे आठ दिन धर्म करे तो कुछ फल कम होता है, ऐसी बात नहीं है। इसलिये तिथियोंका मिथ्या कदागह न रखें, उसे छोड़ दें। कदाग्रह छुडाने के लिये तिथिया बनायी है, उसके बदले उसी दिन जीव कदाग्रह वढाता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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