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________________ ७१८ श्रीमद् राजचन्द्र - जब तक सम्यक्त्व प्रकट नही होता तब तक मिथ्यात्व है, और मिश्रगुणस्थानकका नाश हो जाये तब सम्यक्त्व कहा जाता है । सभी अज्ञानी पहले गुणस्थानकमे है। सत्शास्त्र, सद्गुरुके आश्रयसे जो सयम होता है उसे 'सरागसंयम' कहा जाता है । निवृत्ति, अनिवृत्ति स्थानकका अतर पडे तो सरागसयममेसे वीतरागसयम' होता है । उसे निवृत्ति-अनिवृत्ति दोनो बराबर है। ., स्वच्छंदसे कल्पना वह भाति है। : - ___-'यह तो इस तरह नही, इस तरह होगा' ऐसा जो भाव वह ‘शका' है । - समझनेके लिये विचार करके पूछना, यह 'आशका' कही जाती है। । अपने आपसे जो समझमे न.आये वह 'आशकामोहनोय' है। सच्चा जान लिया हो फिर भी सच्चा भाव न आये, वह भी ‘आशकामोहनीय' है । अपने आप जो समझमे न आये, उसे पूछना । मूल जाननेके बाद उत्तर विषयके लिये इसका किस तरह होगा ऐसा जाननेकी आकाक्षा हो, उसका सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता, अर्थात् वह पतित नही होता । मिथ्या भ्रातिका होना सो शका है। मिथ्या प्रतीतिका अनंतानुबंधीमे समावेश होता है । नासमझीसे दोष देखे तो यह समझका दोष है, परंतु उससे समकित नही जाता, परतु अप्रतीतिसे दोष देखे तो यह मिथ्यात्व है । क्षयोपशम अर्थात् क्षय और शात हो जाना। - राळजके सीमातमे बडके नीचे यह जीव क्या करे ? सत्समागममे आकर साधनके बिना रह गया, ऐसी कल्पना मनमे होती हो और सत्समागममे आनेका प्रसग बने और वहाँ आज्ञा, ज्ञानमार्गका आराधन करे. तो और उस रास्तेसे चले तो ज्ञान होता है। समझमे आ जाये तो आत्मा सहजमे प्रगट होता है, नही तो जिंदगी चली जाये तो भी प्रगट नही होता । माहात्म्य समझमे आना चाहिये । निष्कामवृद्धि और भक्ति चाहिये। अत करणकी शुद्धि हो तो ज्ञान अपनेआप होता है। ज्ञानीको पहचाना जाये तो ज्ञानको प्राप्ति होती है। किसी योग्य जीवको देखे तो ज्ञानी उसे कहते हैं कि सभी कल्पनाएं छोड़ने जैसी है। ज्ञान ले । ज्ञानीको ओघसज्ञासे पहचाने तो यथार्थ ज्ञान नही होता । भक्तिकी रीति नही जानी । आज्ञाभक्ति नही हुई, तब तक आज्ञा हो तो माया भुलाती है । इसलिये जागृत रहे । मायाको दूर करते रहे । ज्ञानी सभी रीति जानते हैं। जब ज्ञानोका त्याग ( दृढ त्याग ) आये अर्थात् जैसा चाहिये वैसा यथार्थ त्याग करनेको ज्ञानी कहे तब माया भुला देती है, इसलिये वहाँ भलीभाँति जागृत रहे। ज्ञानी मिले कि तभीसे तैयार होकर रहे, कमर कस कर तैयार रहे। सत्सग होता है तब माया दूर रहती है, और सत्संगका योग दूर हुआ कि फिर वह तैयारकी तैयार खड़ी है । इसलिये बाह्य उपाधिको कम करें। इससे सत्संग विशेष होता है। इस कारणसे बाह्य त्याग श्रेष्ठ है । बाह्य त्यागमे ज्ञानीको दुख नही है, अज्ञानीको दु ख है। समाधि करनेके लिये सदाचारका सेवन करना है । नकली रग सो नकली रग है । असली रग सदा रहता है। ज्ञानी मिलनेके बाद देह छुट गयी, ( देह धारण करना नही रहता) ऐसा समझें। ज्ञानीके वचन पहले कडवे लगते हैं परतु बादमे मालूम होता है कि ज्ञानीपुरुष ससारके अनत दुःखोको मिटाते है। जैसे औषध कडवा होता है, परतु वह दीर्घकालके रोगको मिटाता है उसी तरह। . त्यागपर सदा ध्यान रखें । त्यागको शिथिल न करें। श्रावक तीन, मनोरथोका चिंतन करे। सत्यमार्गका आराधन करनेके लिये मायासे दूर रहे । त्याग करता ही रहे । माया किस तरह भुलाती है उसका एक दृष्टात - कोई एक सन्यासी था वह यो कहा करता कि 'मै मायाको धुसने ही नही दूंगा। नग्न होकर विचरूंगा।' तव मायाने कहा कि 'मै तेरे आगे हो आगे चलेंगी।' 'जंगलमे अकेला विचरूँगा', ऐसा
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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