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________________ उपदेश नौंध वक्त आनेपर उन्हे मार डालें । यो शूर क्षत्रियस्वभावसे वर्तन करें, जिससे वैरीका पराभव होकर समाधि सुख मिले। ' 'प्रभुपूजामे पुष्प चढाये जाते हैं, उसमे जिसं गृहस्थको हरी वनस्पतिका नियम नही हे वह अपने हेतुसे उसका उपयोग कम करके प्रभुको फूल चढाये। त्यागी मुनिको तो पुष्प चढानेका अथवा उसके उपदेशका सर्वथा निषेध है ऐसा पूर्वाचार्योंका प्रवचन है। - कोई सामान्य मुमुक्षु भाई-बहन साधनके बारेमे पूछे तो ये साधन बतायें--,, ( १) सात व्यसनका त्याग। (६ ) 'सर्वज्ञदेव' और 'परमगुरु' की पांच पांच मालाओ" . ( २) हरी वनस्पतिका त्याग। , का जप । . . . (३) कदमूलका त्याग। (७) भक्तिरहस्य- दोहाका' पठन मनन। (४) अभक्ष्यका त्याग । (८) क्षमापनाका पाठ । '. (५) रात्रिभोजनका त्याग। (९) सत्समागम और सत्शास्त्रका सेवन ।., _ 'सिज्झति', फिर 'बुज्झति', फिर 'मुच्चति', फिर 'परिणिक्वायति', फिर 'सव्वदुक्खाणमतकरति', इन शब्दोका रहस्यार्थ विचारने योग्य है । 'सिज्झति' अर्थात् सिद्ध होते हैं, उसके बाद 'बुज्झति' अर्थात् बोधसहित-ज्ञानसहित होते हैं ऐसा चित किया है। सिद्ध होने के बाद कोई आत्माकी शून्य (ज्ञानरहित) दशा मानते है उसका निषेध बुज्झति से किया गया। इस तरह सिद्ध और बुद्ध होनेके बाद 'मुच्चति' अर्थात् सर्व कर्मसे रहित होते हैं और उसके बाद परिणिव्वायति' अर्थात् निर्वाण पाते हैं, कर्मरहित होनेसे फिर जन्म-अवतार धारण नहीं करते । मुक्त जीव कारणविशेषसे अवतार धारण करते हैं, इस मतका 'परिणिवायति से निषेध सूचित किया है। भवका कारण कर्म, उससे सर्वथा जो मुक्त हुए हैं वे फिरसे भव धारण नहीं करते । कारणके बिना कार्य नहीं होता। इस तरह निर्वाणप्राप्त 'सव्वदुक्खाणमतकरति' अर्थात् सर्व दु खोका अत करते हैं, उनको दुःखका, सर्वथा अभाव हो जाता है, वे सहज स्वाभाविक सुख आनन्दका अनुभव करते हैं । ऐसा कहकर मुक्त आत्माओको शून्यता है, आनन्द नही है इस मतका निषेध सूचित किया है। - ३७ 'अज्ञानतिमिराधानां ज्ञानाजनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ अज्ञानरूपी तिमिर-अधकारसे जो अघ हैं, उनके नेत्रोको लिसने ज्ञानरूपी अजनको शलाका-. अंजनकी सलाईसे खोला, उस श्री सद्गुरुको नमस्कार ।। 'मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। . ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥' मोक्षमार्गके नेता-मोक्षमार्गमे ले जानेवाले, कर्मरूप पर्वतके भेता-भेदन करनेवाले, और समग्र तत्त्वोंके ज्ञाता-जाननेवाले, उन्हे मैं उन गुणोकी प्राप्ति के लिये वन्दन करता हूँ। यहाँ 'मोक्षमार्गके नेता' कहकर आत्माके अस्तित्वसे लेकर उसके मोक्ष और मोक्षके उपायसहित सभी पदो तथा मोक्षप्राप्तोका स्वीकार किया है तथा जोव, अजीव आदि सभी तत्त्वोका स्वीकार किया है । मोक्ष बन्धकी अपेक्षा रखता है, वध, बधके कारणो-आस्रव, पुण्य-पाप कर्म और बंधनेवाले नित्य अविनाशी आत्माकी अपेक्षा रखता है। इसी तरह मोक्ष, मोक्षमार्गको, सवरकी, निर्जराकी, वधके कारणो१ आक २६४ के बीस दोहे । २. मोक्षमाला शिलापाठ ५६ ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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