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________________ ६५० श्रीमद् राजचन्द्र क्षीणमोहपर्यंत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलंबन परम हितकारी है । आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा चाहते हैं। शमम् ८९२ बबई, भाद्रपद सुदी ५, रविवार, १९५५ ॐ शान्तिः श्री झवेरचद और रतनचद आदि मुमुक्षु, काविठा-बोरसद । आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ, किंचित् भी अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमा चाहते हैं। ॐ शान्ति ८९३ बबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ पत्र मिला है। किसी मनुष्यके बताये हुए स्वप्न आदि प्रसगके संबंधमे निविक्षिप्त रहे, तथा अपरिचित रहे । उस विषयमे कुछ उत्तर प्रत्युत्तर आदिका भी हेतु नही है। इद्रियोंके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्श्रुत उपासनीय हैं । आज दिन पर्यन्त आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ अन्यथा हुआ हो उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते है। शमम् ' ८९४ । बंबई, भादो सुदी ५, रवि, १९५५ परम कृपालु मुनिवरोको नमस्कार | आज दिन पर्यन्त योगके प्रमत्त स्वभावके कारण आपके प्रति यत्किचित् अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं। भाई वल्लभ आदि मुमुक्षुओको क्षमापना आदि. कण्ठस्थ करनेके विषयमे आप योग्य आज्ञा करें। ॐ शातिः ८९५ बबई, आसोज, १९५५ २४ जिन ज्ञानीपुरुषोका देहाभिमान दूर हुआ है उन्हे कुछ करना वाकी नही रहा, ऐसा है, तो भी उन्हे सर्वसंगपरित्यागादि सत्पुरुषार्थता परमपुरुपने उपकारभूत कही है ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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