SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 772
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ वा वर्ष ६४९ प्राप्त हुई हो उसे भी ज्ञानीका समागम और आज्ञा अप्रमत्त योग सप्राप्त कराते हैं। मुख्य मोक्षमार्गका क्रम इस प्रकार मालूम होता है। वर्तमानकालमे वैसे महापुरुषोका योग अति दुर्लभ है। क्योकि उत्तम कालमे भी उस योगकी दुर्लभता होती है, ऐमा होनेपर भी जिसे सच्चो मुमुक्षुता उत्पन्न हुई हो, रात-दिन आत्मकल्याण होनेका तथारूप चिंतन रहा करता हो, वैसे पुरुषको वैसा योग प्राप्त होना सुलभ है। 'आत्मानुशासन' अभी मनन करने योग्य है। शातिः बबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ जिन वचनोकी आकाक्षा है वे बहुत करके थोड़े समयमे प्राप्त होगे। इद्रियनिग्रहके अभ्यासपूर्वक सत्श्रुत और सत्समागम निरंतर उपासनीय है। क्षीणमोहपर्यत ज्ञानीकी आज्ञाका अवलबन परम हितकारी है। आज दिन पर्यंत आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभाव द्वारा जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमाको याचना है। शमम् ८८९ बंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ ८८८ जो वनवासो शास्त्र' भेजा है, वह प्रबल निवृत्तिके योगमे इद्रियसयमपूर्वक मनन करनेसे अमृत है। अभी 'आत्मानुशासन'का मनन करें । आज दिन तक आपके तथा समीपवासी बहनो और भाइयोके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे कुछ भी अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते हैं। ॐ शातिः ८९० वंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ श्री अबालाल आदि मुमुक्षुजन, आज-दिन तक आपके प्रति तथा आपके समीपवासी बहनो और भाइयोंके प्रति योगके प्रमत्त स्वभावसे जो कुछ अन्यथा हुआ हो, उसके लिये नम्रभावसे क्षमायाचना करते है। ॐ शातिः ८९१ वंबई, भाद्रपद सुदी ५, रवि, १९५५ आपके तथा भाई वणारसीदास आदिके लिखे पत्र मिले थे। आपके पत्रोमे कुछ न्यूनाधिक लिखा गया हो, ऐसा विकल्प प्रदर्शित किया हो, वैसा कुछ भासमान नहीं हुआ है । निर्विक्षिप्त रहे । बहुत करके यहाँ वैसा विकल्प सभव नहीं है। ___ इद्रियोके निग्रहपूर्वक सत्समागम और सत्शास्त्रका परिचय करें। आपके समीपवासी मुमुक्षुमोका उचित विनय चाहते हैं। १ श्री पचनदी पचविंशति ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy