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________________ ३२ वाँ वर्ष ववाणिया, वैशाख सुदी ७, ८७३ జ ८७२ ॐ जिसे गृहवासका उदय रहता है, वह यदि कुछ भी शुभ ध्यानकी प्राप्ति चाहता हो तो उसके मूल भूत ऐसे अमुक सद्वर्तनपूर्वक रहना योग्य है । उन अमुक नियमोमे 'न्यायसपन्न आजीविकादि व्यवहार' पहला नियम सिद्ध करना योग्य है । यह नियम सिद्ध होनेसे अनेक आत्मगुण प्राप्त करनेका अधिकार नन्न होता है । इस प्रथम नियमपर यदि ध्यान दिया जाये, और इस नियमको सिद्ध ही कर लिया जाये कषायादि स्वभावसे मन्द पडने योग्य हो जाते है, अथवा ज्ञानीका मार्ग आत्मपरिणामी होता है, जिस ध्यान देना योग्य है । ६४५ १९५५ ईडर, वैशाख वदी ६, मगल, १९५५ शनिवार तक यहाँ स्थिरता सभव है। रविवारको उस क्षेत्रमे आगमन होना सम्भव है । इस कारण मुनिश्रीको चातुर्मास करने योग्य क्षेत्रमे विचरनेकी त्वरा हो, उसमे कुछ संकोच प्राप्त ता हो, तो इस पत्रके प्राप्त होनेपर कहेगे तो यहाँ एक दिन कम स्थिरता की जायेगी । निवृत्तिका योग उस क्षेत्रमे विशेष है, तो 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' का वारंवार निदिध्यासन कर्त्तव्य है, सा मुनिश्रीको यथाविनय विदित करना योग्य है | जिन्होने बाह्याभ्यतर असगता प्राप्त की है ऐसे महात्माओके ससारका अन्त समीप है, ऐसा न. सदेह ज्ञानीका निश्चय है । ८७५ ॐ परम कृपालु मुनिवर्य के चरणकमलमे परम भक्तिसे सविनय नमस्कार प्राप्त हो । ८७४ ईडर, वैशाख वदी १०, शनि, १९५५ ॐ अब स्तभतीर्थंसे किसनदासजीकृत 'क्रियाकोष' की पुस्तक प्राप्त हुई होगी । उसका आद्यत अध्ययन करनेके बाद सुगम भाषामे उस विषयमे एक निबन्ध लिखनेसे विशेष अनुप्रेक्षा होगो, और वैसी क्रियाका वर्तन भी सुगम है ऐसी स्पष्टता होगी, ऐसा सम्भव है । सोमवार तक यहाँ स्थिति सम्भव है । राजनगर मे परम तत्त्वदृष्टिका प्रसगोपात्त उपदेश हुआ था, उसे अप्रमत्त चित्तसे एकातयोगमे वारवार स्मरण करना योग्य है । यही विनती । बम्बई, जेठ, १९५५ अहो सत्पुरुषके वचनामृत, मुद्रा और सत्समागम । सुपुप्त चेतनको जागृत करनेवाले, गिरती वृत्तिको स्थिर रखने वाले, दर्शनमात्रसे भी निर्दोष अपूर्व स्वभावके प्रेरक, स्वरूपप्रतीति, अप्रमत्त सयम और पूर्ण वीतराग निर्विकल्प स्वभाव के कारणभूत, अन्तमे अयोगी स्वभाव प्रगट करके अनत अव्यावाध ॐ शांति. शातिः शाति स्वरूपमे स्थिति करानेवाले । त्रिकाल जयवन्त रहे ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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