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________________ ६३६ श्रीमद् राजचन्द्र ८३९ बबई, आषाढ सुदी ११, गुरु, १९५४ __ अनत अतराय होनेपर भी धीर रहकर जो पुरुष अपार महामोहजलको तर गये उन श्री पुरुष भगवानको नमस्कार। अनतकालसे जो ज्ञान भवहेतु होता था, उस ज्ञानको एक समयमात्रमे जात्यतर करके जिसने भवनिवृत्तिरूप किया उस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनको नमस्कार । 'आत्मसिद्धि'की प्रति तथा पत्र प्राप्त हुए। निवृत्तियोगमे सत्समागमकी वृत्ति रखना योग्य है। 'आत्मसिद्धि'की प्रतिके विषयमे आपने इस पत्रमे विवरण लिखा, तत्सबधो अभी विकल्प कर्तव्य नही है । उसके बारेमे निर्विक्षेप रहे। लिखनेमे अधिक उपयोगका प्रवर्तन अभी शक्य नही है। ८४० मोहमयी क्षेत्र, श्रावण सुदी १५, सोम, १९५४ 'मोक्षमार्गप्रकाश' ग्रन्थका विचार करनेके पश्चात् 'कर्मग्रन्थ'का विचारना अनुकूल होगा। दिगबर संप्रदायमे द्रव्य-मन आठ पखडीका कहा है। श्वेताबर सप्रदायमे इस बातकी विशेष चर्चा नही है । 'योगशास्त्र'मे उसके बहुत प्रसग है । समागममे उसका स्वरूप सुगम हो सकता है। ८४१ मोहमयी क्षेत्र, श्रावण वदी ४, शुक्र, १९५४ समाधिके विषयमे यथाप्रारब्ध विशेष अवसरपर । ८४२ काविठा, श्रावण वदी १२, शनि, १९५४ -ॐनमः शुभेच्छासपन्न, श्री ववाणिया। वहुत करके मगलवारके दिन आपका लिखा एक पत्र बबईमे मिला था। बुधवारको रातको बबईसे निवृत्त होकर गुरुवार सबेरे आणद आना हुआ था। और उसी दिन रातके लगभग ग्यारह बजे यहाँ आना हुआ। यहाँ दससे पद्रह दिन तक स्थिति होना संभव है। आपने अभी समागममे आनेकी वृत्ति प्रदर्शित की, उसमे आपको अतराय जैसा हुआ | क्योकि इस पत्रके पहुँचनेसे पहले ही लोगोमे पर्यषणका प्रारभ हआ समझा जायेगा। जिससे आप इस तरफ आये तो गुण-अवगुणका विचार किये विना मताग्रही मनुष्य निंदा करेंगे, और वैसे निमित्तको ग्रहण कर वे निंदा द्वारा बहुतसे जीवोको परमार्थप्राप्ति होनेमे अंतराय उत्पन्न करेंगे। इसलिये वैसा न होनेके लिये आपको अभी तो पर्युषणमे वाहर न जाने सबंधी लोक-पद्धतिको निभाना योग्य है । आप और महेताजी 'वैराग्यशतक', 'आनदघन चौबीसी', 'भावनाबोध' आदि पुस्तकें पढ-विचारकर जितना हो सके उतना निवृत्तिका लाभ प्राप्त करें। प्रमाद और लोक-पद्धतिमे काल सर्वथा वृथा गंवा देना, यह मुमुक्षुजीवका लक्षण नही है । दूसरे शास्त्रोका योग बनना कठिन है, ऐसा समझकर उपर्युक्त पुस्तके लिखी हैं। ये पुस्तकें भी विशेष विचार करने योग्य हैं । माताजी तथा पिताजीसे पादवदनपूर्वक सुखवृत्तिके समाचार विदित करे ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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