SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 756
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१ वॉवर्ष ६३५ प्रियता नहीं करता, दुर्गंध देखकर अप्रियता, दुगछा नही करता। (व्यवहारसे) अच्छी मानी गयो वस्तुको देखकर यह वस्तु मुझे मिल जाये तो ठीक ऐसी इच्छाबुद्धि (राग, रति) नही करता। (व्यवहारसे) बुरी मानी गयी वस्तुको देखकर यह वस्तु मुझे न मिले तो ठीक ऐसी अनिच्छावुद्धि (द्वेष, अरति) नही करता। प्राप्त स्थिति सयोगमे अच्छा-बुरा, अनुकूल-प्रतिकूल, इष्टानिष्टबुद्धि, आकुलता-व्याकुलता न करते हुए उसमे समवृत्तिसे, अर्थात् अपने स्वभावसे रागद्वेषरहित भावसे रहना यह समदर्शिता है। ___साता असाता, जीवन मरण, सुगध-दुर्गध, सुस्वर-दुस्वर, सुरूप-कुरूप, शीत-उष्ण आदिमे हर्प-शोक, रति-अरति, इष्टानिष्टभाव और आर्तध्यान न रहे यह समदर्शिता है। हिसा; असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रहका परिहार समदर्शीमे अवश्य होता है। अहिंसा आदि व्रत न हो तो समदर्शिता सभव नही । समदर्शिता और अहिंसादि व्रतोका कार्यकारण, अविनाभावी और अन्योन्याश्रय सबध है । एक न हो तो दूसरा न हो, और दूसरा न हो तो पहला न हो । समदर्शिता हो तो अहिंसादि व्रत हो। समदर्शिता न हो तो अहिंसादि व्रत न हो। . अहिंसादि व्रत न हो तो समदर्शिता न हो। अहिंसादि व्रत हो तो समर्शिता हो । 'जितने अशमे समदर्शिता उतने अशमे अहिंसादि व्रत और जितने अशमे अहिंसादि व्रत उतने अशमे समदर्शिता । सद्गुरुयोग्य लक्षणरूप समदर्शिता मुख्यतया सर्वविरति गुणस्थानमे होती है, वादके गुणस्थानोम वह उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होती जाती है, विशेष प्रगट होती जाती है, क्षीणमोहगुणस्थानमे उसकी पराकाष्ठा और फिर सम्पूर्ण वीतरागता होती है ।- - समदर्शिता अर्थात् लौकिकभावमे समान-भाव, अभेद-भाव, एक समान-बुद्धि और निविशेषता नही, अर्थात् काच और हीरा दोनोको समान समझना, अथवा सत्श्रुत और असत्श्रुतमे समत्व समझना, अथवा सद्धर्म और असद्धर्ममे अभेद मानना, अथवा सद्गुरु और असद्गुरुमे एकसी बुद्धि रखना, अथवा सद्देव और असदेवमे निविशेषता दिखाना अर्थात् दोनोको एकसा समझना, इत्यादि समान वृत्ति, यह समदर्शिता नही, यह तो आत्माकी मढ़ता, विवेक-शून्यता, विवेक-विकलता है । समदर्शी सत्को सत् जानता है, सत्का बोध करता है, असतको असत् जानता हे, असत्का निषेध करता है, सत्श्रुतको सत्श्रुत जानता है, उसका बोध करता है, कुश्रुतको कुश्रुत जानता है, उसका निषेध करता है, सद्धर्मको सद्धर्म जानता है, उसका बोव करता है, असद्धर्मको असद्धर्म जानता है, उसका निषेध करता है, सद्गुरुको सद्गुरु जानता है, उसका बोध करता है, असदगुरुको असदगुरु जानता है, उसका निषेध करता है. सद्देवको सद्देव जानता है, उसका बोध करता है, असहेवको असद्देव जानता है, उसका निषेध करता है, इत्यादि जो जैसा होता है, उसे वैसा देखता है, जानता है और उसका प्ररूपण करता है, उसमे रागद्वेप, इष्टानिष्टवुद्धि नहीं करता, इस प्रकारसे समदर्शिता समझे। ८३८ बंबई, ज्येष्ठ वदी १४, शनि, १९५४ नमो वीतरागाय मुनियोंके समागममे ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करनेके सवधमे यथासुख प्रवृत्ति करे, प्रतिवध नहीं है। श्री लल्लजी मनि तथा देवकोणं आदि मुनियोको जिनस्मरण प्राप्त हो । मुनियोकी ओरसे पन मिला था। यही विज्ञापन । श्री राजचन्द्र देव ।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy