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________________ श्रीमद् राजचन्द्र ५३ आत्मा (वस्तुत ) अनादि अनंत है और सतानकी अपेक्षासे सादि-सात भी है और सादिअनंत भी है । पाँच भावोकी प्रधानतासे वे सब भग होते हैं । सद्भावसे जीव द्रव्य अनत है । - ५४ इस तरह सत् (जीव-पर्याय) का विनाश और असत् जीवका उत्पाद परस्पर विरुद्ध होनेपर भी जैसा अविरोधरूपसे सिद्ध है वैसा सर्वज्ञ वीतरागने कहा है । 7 1 -17 16 P ५५ नारक, तियंच, मनुष्य और देव-ये नामकर्मको प्रकृतियाँ सत्का विनाश और असत् भावका उत्पाद करती है । ~25, ५६. उदय, उपशम, क्षायिक, क्षयोपशम और पारिणामिक भावोसे 'जीवके गुणोंका बहुत विस्तार है। ५७, ५८, ५९ """" PAN हूँ ६० द्रव्यकर्मका निमित्त पाकर जीव उदय आदि भावोमे परिणमन करता है, भावकर्मको निमित्त पाकर द्रव्यकर्मका परिणमन होता है। कोई किसीके भावका कर्ता नही है, और कर्ता के बिना होते नही हैं । ६१. सब अपने अपने स्वभाव के कत्र्ता है, इसी तरह आत्मा भी अपने ही भावका कर्त्ता हैं, आत्मा पुद्गलकर्मका कर्त्ता नहीं है, ये वीतराग-वचन समझने योग्य हैं । 1 """ ६२ कर्म अपने स्वभावके अनुसार यथार्थ परिणमन करता है, उसी प्रकार जीद अपने स्वभाव के अनुसार 'भावकर्मको करता है । h ६३ यदि कर्म ही कर्मका कर्ता हो, और आत्मा हो' आत्माका कर्त्ता हो, तो फिर उसे कर्म का फल कौन भोगेगा ?" और कर्म' अपने' फलको 'किसे देगा ? विशुन ६०० 2 11 IM " मरा 117 ६४ सपूर्ण लोक पुद्गल - समूहोसे भरपूर भरा हुआ है सूक्ष्म और वादर ऐसे विविध प्रकार से अन 4. कधोंसे । """ 1/2 }, 22 1270 F# of 190% ६५ आत्मा जब भावकर्मरूप अपने स्वभावको करता है, तब वहाँ रहे हुए पुद्गलप॑रमाणु अपने स्वभावके कारण कर्मभावको प्राप्त होते है, और परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूपसे अवगाढता पाते हैं ।" ६६ कोई कर्ता नही होने पर भी जैसे पुद्गलद्रव्यसे अनेक स्कधोकी उत्पत्ति होती है वैसे ही कर्म - रूपसे स्वभावतं पुद्गलद्रव्य परिणमितं होते है ऐसा जान 55 ६७ जीव और पुद्गलसमूह परस्पर अवगाढ ग्रहण से जीव सुखदुखरूप फलका वेदन करता है। AM 150 157 2.26 (5-1 प्रतिबद्ध हैं । इसलिये यथाकाल उदय होनेपर ६८ इसलिये कर्मभावका कर्ता जीव है और भोक्ता भी जीव है । वेदक भावके कारण वह कर्म - फलंका अनुभव करता है । 20 ', ६९ इस तरह आत्मा" अपने भावसे कर्त्ता और भोक्ता होता है । मोहसे भलीभांति, आच्छादित जीव ससारमे परिभ्रमण करता है । ७० • ( मिथ्यात्व) मोहका उपशम होनेसे अथवा ' क्षय होनेसे वीतरागकथित मार्गको प्राप्त हुआ धीर, शुद्ध ज्ञानाचारवान जीव निर्वाणपुरको जाता है । 1021 ७१-७२. एक प्रकारसे, दो प्रकारसे, तीन प्रकार से, चार गतियोंके भेदसे- पाँच गुणोकी मुख्यता, छ कायके भेदसे, सात भगोके उपयोगसे, आठ गुणो अथवा आठ कर्मोंके भेदसे, नव तत्त्वसे, और दर्शस्थानक से जीवका निरूपण किया गया है। र ܐ प्र 65117 ७३. प्रकृतिवध, स्थितिबंध, अनुभागवध और प्रदेशबध से सर्वथा मुक्त होने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है । ससार अथवा कर्मावस्थामे - जीव विदिशाको' छोडकर दूसरी दिशाओमे गमना करता है. 2 ७४ स्कध, स्कधदेश, स्कध प्रदेश और परमाणु इस तरह पुद्गलास्तिकायके चार भेद समझे । ७५' सकल' समस्तकोस्कध', उसके आधेको 'देश', 'उसके आधेको प्रदेश और अविभागीको 'परमाणु' कहते हे । 1 Tow EX
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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