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________________ श्रीमद राजचन्द्र १७ मनुष्यपर्यायसे नष्ट हुआ जीव देव या अन्य पर्यायसे उत्पन्न होता है । दोनोमे जीवभाव ध्रुव है । वह नष्ट होकर कुछ अन्य नही होता । 7 १८. जो जीव उत्पन्न हुआ था वही जीव नष्ट हुआ है । वस्तुत तो वह जीव उत्पन्न नही हुआ और नष्ट भी नही हुआ । उत्पत्ति और नाश देवत्व और मनुष्यत्वका होता है । '१९ इस तरह सत्का विनाश, और असत् जीवका उत्पाद नही होता । जीवके देव, मनुष्य आदि पर्याय गतिनामकर्म से होते हैं । t t ५९८ २० - ज्ञानावरणीय आदि कर्मभाव जीवने सुदृढ (अवगाढ) रूपसे बाँधे हैं, उनका अभाव करनेसे वह अभूतपूर्व 'सिद्ध भगवान' होता है । J २१ इस तरह गुणपर्यायसहित जीव भाव, अभाव, भावाभाव:- और अभावभावसे ससारमे परिभ्रमण करता है । २२ जीव, पुद्गलसमूह, ' आकाश तथा दूसरे अस्तिकाय किसीके बनाये हुए नही हैं, 'स्वरूपसे ही अस्तित्ववाले है, और लोकके कारणभूत हैं ।. २३ सद्भाव स्वभाववाले जीवो और पुद्गलके परावर्तन से उत्पन्न जो काल है उसे निश्चयकाल कहा है । २४. वह काल पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्शसे रहित है, अगुरुलघु है, अमूर्त है और वर्तना लक्षणवाला है । } 1/ " १. २५ समय, निमेष, काष्ठा, कला, नाली, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, मास, ऋतु और सवत्सर आदि यह व्यवहारकाल है । T भि S २६ कालके किसी भी परिमाण (माप) के बिना बहुत काल, अल्प काल यो नही कही जा सकता । उसकी मर्यादा पुद्गलद्रव्यके विना नही होती । इस कारण कालका पुद्गलद्रव्यसे उत्पन्न होना कहा जाता है । न 25 } - २७`जीवत्ववाला,' ज्ञाता, उपयोगवाला, प्रभु, कर्त्ता, भोक्ता, देहप्रमाण, वस्तुतः अमूर्त और कर्मावस्थामे मूर्त्त ऐसा जीव है । २८. कर्ममलसे सर्वथा मुक्त हो जाने से सर्वज्ञ और 'सर्वदर्शी आत्मा ऊर्ध्वं लोकातको प्राप्त होकर अतीद्रिय अनन्त सुखको प्राप्त होता है । 1 - २९ अपने स्वाभाविक भावसे आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है और अपने कमसे मुक्त होनेसे वह अत सुखको प्राप्त होता है । ३० वल, इन्द्रिय, आयु और उच्छ्वास इन चार प्राणोसे जो भूतकालमे जीता था, वर्तमानकालमे जीता है, और भविष्यकालमे जीयेगा वह 'जीव' है । 5. : ३१ अनंत अगुरुलघु- गुणोसे निरतर परिणत 'अनत जीव हैं ।" वे असंख्यात प्रदेशप्रमाण हैं । कुछ जीव लोकप्रमाण अवगाहनाको प्राप्त हुए हैं ।' 1- 150 133 7 ३२ कुछ जीव उस अवगाहनाको प्राप्त नही हुए है । मिथ्यादर्शन, कषाय और योगसहित अनंत ससारी जीव है । उनसे रहित अनंत सिद्ध हैं। और 356 ३३. जिस प्रकार पद्मराग नामका रत्न दूधमे डालनेसे दूधके परिमाणके अनुसार प्रकाशित होता है, उसी प्रकार देहमे स्थित आत्मा मात्र देहप्रमाण प्रकाशक व्यापक है । H ३४ जैसे एक कायामे सर्वं अवस्थाओमे वहीका वही जीव रहता है, वैसे सर्वत्र ससारावस्थामे भी वहीका वही जीव रहता है । अध्यवसाय विशेषसे कर्मरूपी रजोमलसे वह जीव मलिन होता है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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