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________________ ३० वॉ वर्ष ५९५ । ससारके मूल हेतुओको 'विशेष नाश करनेके लिये ज्ञानीपुरुपकी बाह्य और अतरग क्रियाका जो निरोध होता है, उसे वीतरागोने परमसम्यक्चारित्र' कहा है। मुनि ध्यानद्वारा मोक्षके हेतुरूप इन दोनो चारित्रोको अवश्य प्राप्त करते हैं, इसलिये प्रयत्नवान चित्तसे ध्यानका उत्तम अभ्यास करें । यदि आप अनेक प्रकारके ध्यानकी प्राप्तिके लिये चित्तकी स्थिरता चाहते हैं तो प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुमे मोह न करे, राग न करें और द्वेष न करें।' पैतीस, सोलह, छ , पाँच, चार, दो और एक अक्षरके परमेष्ठोपदके वाचक जो मत्र है, उनका जपपूर्वक ध्यान करें। विशेष स्वरूपको श्री गुरुके उपदेशसे जानना योग्य है। - - - ।' [अपूर्ण ] ७६२ संवत् १९५३ । । ॐ नमः . . . . . सर्व द खका आत्यतिक अभाव और परम अव्याबाध सुखकी प्राप्ति हो मोक्ष है और वही परमहित है। ', - - . . . . . . वीतराग सन्मार्ग उसका सदुपाय है। वह सन्मार्ग सक्षेपमे इस प्रकार है :सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको एकत्रता 'मोक्षमार्ग' है। सर्वज्ञके ज्ञानमे भासमान तत्त्वोकी सम्यकप्रतीति होना- सम्यग्दर्शन' है। उन तत्त्वोका बोध होना ‘सम्यग्ज्ञान' है। . . . . . . . . . . उपादेय तत्त्वका अभ्यास होना 'सम्यक्चारित्र' है। ..... . . शुद्ध आत्मपद स्वरूप वीतरागपदमे स्थिति होना, यह.तीनोकी एकत्रता हे। .. सर्वज्ञदेव, निग्रंथगुरु और सर्वज्ञोपदिष्ट धर्मको प्रतीतिसे तत्त्वप्रतीति प्राप्त होती है। ... सर्व ज्ञानावरण, दर्शनावरण, सर्व मोह और सर्व वीर्य आदि अतरायका क्षय होनेसे आत्माका सर्वज्ञवीतराग स्वभाव प्रगट होता है।' । निग्रंथपदके अभ्यासका उत्तरोत्तर क्रम उसका मार्ग है। उसका रहस्य सर्वज्ञोपदिष्ट धर्म है । ७६३ सं० १९५३ गरुके उपदेशसे सर्वज्ञकथित आत्माका स्वरूप जानकर, सुप्रतीत करके उसका ध्यान करें। ज्यो ज्यो ध्यानविशुद्धि होगी त्यो त्यो ज्ञानावरणीयका क्षय होगा। । अपनी कल्पनासे वह ध्यान सिद्ध नहीं होता। जिन्हे ज्ञानमय आत्मा परमोत्कृष्ट भावसे प्राप्त हुआ है, और जिन्होने परद्रव्यमात्रका त्याग किया है, उन देवको नमन हो । नमन हो ! वारह प्रकारके, निदानरहित तपसे, वैराग्यभावनासे भावित और अहभावसे रहित ज्ञानीको कर्मोकी निर्जरा होती है। वह निर्जरा भी दो प्रकारको जाननी चाहिये-स्वकालप्राप्त और तपसे । एक चारो गतियोमे होती है, दूसरी व्रतधारीको ही होती है। ज्यो ज्यो उपशमको वृद्धि होती हे त्यो त्यो तप करनेसे कर्मको बहुत निर्जरा होती है।
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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