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________________ राष्ट ८४३ ७ शद्ध निर्विकल्प चैतन्यकी स्वरूपरहस्यमय उक्ति-आपसे जगत भिन्न, अभिन्न, भिन्नाभिन्न है ८ केवलज्ञानका स्वरूप, ८४३ ९ केवलज्ञान कैसे हो? ८४४ १० आकाशवाणी-तप करें, चैतन्यका ध्यान करें ८४४ -११ अपना स्वरूप चित्रसहित १२ शुद्ध चेतन्य, सद्भावकी प्रतीति-सम्य ग्दर्शनज्ञानसम्बन्धी प्रश्न, ध्यान और अध्ययन . ८४४ १३ ठाणागमे विचारणीय एक सूत्र ८४५ १४ अवधूतवत्, विदेहवत्, जिनकल्पीवत् विचरनेवाले पुरुष भगवानके स्वरूपका ध्यान ८४५ १५ प्रवृत्तिकी विरति, सग और स्नेहपाशको तोडना १६ स्वरूपवोध आदि स्वविचार ८४५ १७ सर्वज्ञ-वीतरागदेव-ईश्वर, मनुष्यदेहमें उस पदकी प्राप्ति १८ अप्रमत्त उपयोगसे केवल अखडाकार __ स्वानुभवस्थिति ८४६ १९ ब्रह्मचर्य अद्भुत अनुपम सहायकारी ८४६ २० सयम ८४६ २१ जागृतसत्ता, ज्ञायकसत्ता, आत्मस्वरूप ८४६ २२ आत्मध्यानार्थ विचरनेकी भावना ८४६ २३ सन्मार्ग, सद्देव और सद्गुरु जयवत रहें ८४६ २४ विश्वके द्रव्योका विचार ८४७ २५ परम गुणमय चारित्र आदिको आवश्यकता, एक ग्रन्यकी सकलना ८४७ २६ स्वपर-उपकारका कार्य कर लेनेकी भावनाके मत्रात्मक वाक्य ८४७ २७ निग्रंन्यप्रवचनसम्बन्धी सूत्रकृतागका अव___तरण २८ शरीरसवघी दूसरी वार अप्राकृत क्रम ८४८ २९ निर्विकल्परूपसे अतर्मुखवृत्ति करके आत्मध्यानका क्रम ८४९ ३० वीतरागदर्शनसक्षेप एक पुस्तककी संकलना ८४८ .८४५ ४९
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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