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________________ [ ५५ ] ८०५ १४ इन्द्रिय, मन और आत्मा, कर्मवध अदृश्य, कामका बहाना, सम्यग्दृष्टिकी प्रवृत्ति, विपाक दृश्य अनागार आदिके अर्थ ७९० सिद्धि आदि शक्तियां सच्ची, वीर्यमदता, १५ अनुपपन्नका अर्थ ७९१ 'काम कर लेनेका योग्य : समय, ज्ञानी-- १६ श्रावक आश्रयी अणुव्रतके विषयमें । - ७९१ पुरुपकी व्यवहारमें भी अतरात्मदृष्टि,' १७ दिगम्बर और श्वेताम्बर दृष्टिसे केवल . उपाधिमें उपाधि और समाधिमें समाधि ज्ञान, तेजस और कार्मण आदि शरीर, रखना, व्यवहारमें आत्मकर्तव्य, कर्मरूपी आठ रुचक प्रदेश, मौतकी औषधि नही ७९२ कर्ज, इद्र आदि भी अशक्तिमान, १८ अतवृत्ति और उसकी प्रतीति, सम्यग्दृष्टि आत्माका अप्रमत्त उपयोग, करणानुयोग की निर्जरा, गाढ आदि सम्यक्त्व और . और चरणानुयोग, ९वें गुणस्थानकमें गुणस्थानक, धर्मकी कसौटी, आचार्यका वेदोदयका क्षय ७९९ उत्तरदायित्व | ९६० आभ्यतर-परिणामावलोकन १९ अवविज्ञान, मन पर्यायज्ञान और पर प्रस्तावना ८०२ मावधिज्ञान । ७९३ ___ सस्मरण पोयो-१ २० आराधना, उसके प्रकार और विधि, गुण- । १ स्वरूप दृष्टिगत न होनेका कारण ८०३ की अतिशयता ही पूज्य, सिद्धि, लब्धि २ छ पदका दृढनिश्चय ८०४ आदि आत्माके जागृत भावमें, लब्धि , । ३ जीवकी व्यापकता, परिणामिता, कर्मआदि ज्ञानीसे तिरस्कृत, आत्मा और ____सबद्धता आदिके निर्णयकी दुष्करता ८०५ मृत्यु, स्थविरकल्प, जिनकल्प ७९४ ४ सहज २१ जिनका अहिंसा धर्म, हिन्दी और ५ स्वविचारभुवन-कल्याणमार्ग ८०६ युरोपियनका विद्याभ्यास , । ७९५ २२ वेदनीय कर्मको स्थिति ६ अतिम समझ ८०८ और वध, प्रकृतियोका एक साथ, वध, मूलोत्तर ७ आत्मसाधन-आत्माके द्रव्य क्षेत्र, काल भाव ८०८ प्रकृतियोका वध ७९५ ८ मन वचन कायाका सयम ८०८ २३ आयुका बघ, उदय और उदीरणा - -७९६ ९ सुख न चाहनेवाला ८०९ ज्ञानावरणीय, आदि और क्षयोपशमभाव ज्ञान, दर्शन और वीर्यका काम, कर्म १० स्यात् मुद्रा, सच्चिदानद और नय प्रमाण प्रकृतिको वर्णनमे निच्चितता ७९६ आदि, दृष्टिविष जाने के बाद, पुनर्जन्म २५ ज्ञान धागेवाली सूई . ७९७ है, इस कालमें मेरा जन्म लेना, हम जो २६ प्रतिहार, नग्न आदि शब्दोके अथ, ज्ञान है वह पायें, विकराल काल-कर्म-आत्मा ८०९ और दर्शन ११ इतना ही खोजा जाय तो सब मिलेगा ८१० २७ चयोपचय, चयविचय, चिंताका शरीरपर १२ मारग साचा मिल गया (काव्य) ८१० ___ असर, वनस्पतिमें आत्मा ७९८ १३ स्वभुवनमें विचारमें २८ साधु, यति, मुनि, ऋपि ७९८ १४ होत आसवा परिसवा (काव्य) ८११ २९ भव्य और अभव्य १५ अनुभव ३० वध और मोक्ष, प्रदेश आदि वघ, विपाक, १६ यह त्यागी भी नही अत्यागी भी नही, चार्वाक कौन ? तेरहवें गुणस्थानकमें एक सतपना अति दुलभ ८१२ समयवर्ती वध, कपायका रस, श्रवण, १७ प्रकाशभुवन-आप इस ओर मुडें, यह मनन आदि, आत्मासवधी विचारमें बोध सम्यक है, यह पुरुष यथार्थवक्ता या ८१२ ८११ ८१२
SR No.010840
Book TitleShrimad Rajchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1991
Total Pages1068
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Rajchandra
File Size49 MB
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